________________ छठा अध्ययन : कुडकौलिक]] [137 उवासग-पडिमाओ तहेव जाव' सोहम्मे कप्पे अरुणज्मए विमाणे जाव (से णं भंते ! कुडकोलिए ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं, ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गमिहिइ ? कहि उववज्जिहिइ ? गोयमा ! महाविवेहे वासे सिन्सिहिइ, (मुच्चिहिइ, सव्वदुक्खाण) अंतं काहिइ / निक्खेवो / सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं छठं अज्झयणं समत्तं // तदनन्तर श्रमणोपासक कुडकौलिक को व्रतों की उपासना द्वारा आत्म-भावित होते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गए। जब पन्द्रहवां वर्ष प्राधा व्यतीत हो चुका था, एक दिन आधी रात के समय उसके मन में विचार आया, जैसा कामदेव के मन में आया था। उसी की तरह अपने बड़े पुत्र को अपने स्थान पर नियुक्त कर वह भगवान महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति के अनुरूप पोषधशाला में उपासनारत रहने लगा। उसने ग्यारह उपासक-प्रतिमाओं की आराधना की / आगे का वृत्तान्त भी कामदेव जैसा ही है / अन्त में देह-त्याग कर वह अरुणध्वज विमान में देवरूप में उत्पन्न हुा / (भगवन् ! कुडकौलिक उस देवलोक से आयु, भव एवं स्थिति का क्षय होने पर देव-शरीर का त्याग कर कहाँ जायगा ? कहाँ उत्पन्न होगा? गौतम ! वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त होगा, सब दुःखों का) अन्त करेगा। / निक्षेप / / / सातवें अंग उपासकदशा का छठा अध्ययन समाप्त / / 1. देखें सूत्र-संख्या 92 2. एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव संपत्तेणं छट्रस्स अज्झयणस्स अयमठे पण्णते त्ति बेमि। 3. निगमन-आर्य सुधर्मा बोले- जम्बू ! सिद्धिप्राप्त भगवान महावीर ने उपासकदशा के छठे अध्ययन का यही अर्थ--भाव कहा था, जो मैंने तुम्हें बतलाया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org