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________________ सातवां अध्ययन सार : संक्षेप भगवान् महावीर का समय विभिन्न धार्मिक मतवादों, विविध सम्प्रदायों तथा बहुविध कर्मकांडों से संकुल था। उत्तर भारत में उस समय अवैदिक विचारधारा के अनेक प्राचार्य थे, जो अपने सिद्धान्तों का प्रचार करते हुए घमते थे। उनमें से अनेक अपने आपको अर्हत्, जिन, केवली या सर्वज्ञ कहते थे। सुत्तनिपात सभियसुत्त में वैसे 63 सम्प्रदाय होने का उल्लेख है। जैनों के दूसरे अंग सूत्रकृतांग आगम में भगवान् महावीर के समसामयिक सैद्धान्तिकों के चार वर्ग बतलाए हैं—क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी तथा अज्ञानवादी। कहा गया है कि वे अपने समवसरण सिद्धान्त या वाद का भिन्न-भिन्न प्रकार से विवेचन करते थे / ' सूत्रकृतांगवृत्ति में 363 धार्मिक मतवादों के होने का उल्लेख है / अर्थात् ये विभिन्न मतवादी प्रायशः इन चार वादों में बंटे हुए थे। बौद्ध वाङमय में मुख्य रूप से छह श्रमण सम्प्रदायों का उल्लेख है, जिनके निम्नांकित प्राचार्य या संचालक बतलाए गए हैं पूरणकस्सप, मंखलिगोसाल, अजितकेसकंबलि, पकुध कच्चायन, निगंठनातपुत्त, संजय वेलट्टिपुत्त / इनके सैद्धान्तिक वाद क्रमशः अक्रियावाद, नियतिवाद, उच्छेदवाद, अन्योन्यवाद, चातुर्यामसंवरवाद तथा विक्षेपवाद बतलाए गए हैं / बौद्ध साहित्य में भगवान महावीर के लिए 'निगंठनातपुत्त' का प्रयोग हुआ है। मंखलिपुत्र गोशालक का जैन और बौद्ध दोनों साहित्यों में नियतिवादी के रूप में विस्तार से वर्णन हुअा है। पांचवें अंग व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में १५वे शतक में गोशालक का विस्तार से वर्णन है। गोशालक को अष्टांग निमित्त का कुछ ज्ञान था। उसके द्वारा वह लोगों को लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवन एवं मरण के विषय में सही उत्तर दे सकता था। अतः जो भी उसके पास आते, वह उन्हें उस प्रकार की बातें बताता / लोगों को तो चमत्कार चाहिए। ___यों प्रभावित हो उसके सहस्रों अनुयायी हो गए थे। पोलासपुर में सकडालपुत्र नामक एक कुभकार गोशालक के प्रमुख अनुयायियों में था। सकडालपुत्र एक समृद्ध एवं सम्पन्न गृहस्थ था / उसकी एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में खजाने में रखी थीं, एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार में लगी थीं, एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं घर के वैभव एवं उपकरणों में लगी थीं। उसके दस हजार गायों का एक गोकुल था। ____ सकडालपुत्र का प्रमुख व्यवसाय मिट्टी के बर्तन तैयार कराना और बेचना था। पोलासपुर . 1. चत्तारि समोसरणाणिमाणि, पावाया जाइं पुढो वयंति / किरियं अकिरियं विणियं ति तइयं अन्नाणमाहंसू च उत्थमेव / / —सूत्रकृतांग 1.12.1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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