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________________ छठा अध्ययन : कुडकौलिक] [135 नहीं हैं, वे देव क्यों नहीं हुए ? देव ! तुमने यदि दिव्य ऋद्धि, उत्थान, पराक्रम आदि द्वारा प्राप्त की है तो "उत्थान आदि का जिसमें स्वीकार नहीं है, सभी भाव नियत हैं, गोशालक की यह धर्म-शिक्षा सुन्दर है तथा जिसमें उत्थान आदि का स्वीकार है, सभी भाव नियत नहीं हैं, भगवान् महावीर की वह शिक्षा असुन्दर है" तुम्हारा यह कथन असत्य है / देव की पराजय 172. तए णं से देवे कुडकोलिएणं समणोवासएणं एवं वुत्ते समाणे संकिए, जाव (कंखिए, विइगिच्छा-समावन्ने,) कलुस-समावन्ने नो संचाएइ कुडकोलियस्स समणोवासयस्स किंचि पामोक्ख. माइक्खित्तए; नाम-मुद्दयं च उत्तरिज्जयं च पुढवि-सिला-पट्टए ठवेइ, ठवेत्ता जामेव दिसि पाउन्भूए, तामेव दिसि पडिगए। श्रमणोपासक कुडकौलिक द्वारा यों कहे जाने पर वह देव शंका, (कांक्षा व संशय) युक्त तथा कालुष्ययुक्त—ग्लानियुक्त या हतप्रभ हो गया, कुछ उत्तर नहीं दे सका। उसने कूडकौलिक की नामांकित अंगूठी और दुपट्टा वापस पृथ्वीशिलापट्टक पर रख दिया तथा जिस दिशा से आया था, वह उसी दिशा की ओर लौट गया। भगवान द्वारा कुडकौलिक की प्रशंसा : श्रमण-निर्ग्रन्थों को प्रेरणा 173. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे / उस काल और उस समय भगवान महावीर का काम्पिल्यपुर में पदार्पण हुआ। 174. तए णं से कुडकोलिए समणोवासए इमीसे कहाए लद्धठे हट्ठ जहा कामदेवो तहा निग्गच्छइ जाव' पज्जुवासइ / धम्मकहा / श्रमणोपासक कुडकौलिक ने जब यह सब सुना तो वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ और भगवान् के दर्शन के लिए कामदेव की तरह गया, भगवान की पर्युपासना की, धर्म-देशना सुनी / 175. 'कुडकोलिया !' इ समणे भगवं महावीरे कुडकोलियं समणोवासयं एवं वयासीसे नूणं कुडकोलिया ! कल्लं तुब्भं पुज्वावरण्ह-काल-समयंसि असोग-वणियाए एगे देवे अंतियं पाउन्भवित्था / तए णं से देवे नाम-मुदं च तहेव जाव (नो संचाएइ तुब्भे किचि पामोक्खमाइक्खित्तए, नाममुद्दगं च उत्तरिज्जगं च पुढविसिलापट्टए ठवेइ, ठवेत्ता जामेव दिसं पाउन्भूए, तामेव (दिसं) पडिगए / से नूणं कुडकोलिया ! अढे समठे ? हन्ता अत्थि / तं धन्नेसि णं तुम कुडकोलिया ! जहा कामदेवो। अज्जो ! इ समणे भगवं महावीरे समणे निग्गथे य निग्गंथीओ य आमंतित्ता एवं वयासीजइ ताव, अज्जो ! गिहिणो गिहिमज्झावसंता णं अन्न-उत्थिए अङ्केहि य हेऊहि य पसिणेहि य कारणेहि य वागरणेहि य निप्पट्ठ-पसिणवागरणे करेंति, सक्का पुणाई, अज्जो ! समोह निग्गंथेहि 1. देखें सूत्र-संख्या 114 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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