________________ 134] [उपासकदशांगसूत्र धम्मपप्णत्ती-अत्थि उटाणे इ वा जाव' अणियया सव्व-भावा / तुमे णं देवा ! इमा एयारूवा दिव्वा देविड्डी, दिव्या देव-ज्जुई, दिव्वे देवाणुभावे किणा लद्धे, किणा पत्त, किणा अभिसमण्णागए ? कि उट्ठाणेणं जाव ( कम्मेणं, बलेणं, वोरिएणं) पुरिसक्कारपरक्कमेणं ? उदाहु अणुट्ठाणेणं जाव ( अकम्मेणं, अबलेणं, अवोरिएणं ) अपुरिसक्कारपरक्कमेणं ? तब श्रमणोपासक कुडकौलिक ने देव से कहा-उत्थान, (कर्म, बल, वीर्य, पौरुष एवं पराक्रम) का कोई अस्तित्व नहीं है, सभी भाव नियत हैं—गोशालक की यह धर्म-शिक्षा यदि उत्तम है और उत्थान आदि का अपना महत्त्व है, सभी भाव नियत नहीं हैं-भगवान् महावीर की यह धर्म-प्ररूपणा अनुत्तम है--अच्छी नहीं है, तो देव ! तुम्हें जो ऐसी दिव्य ऋद्धि, द्युति तथा प्रभाव उपलब्ध, संप्राप्त और स्वायत्त है, वह सब क्या उत्थान, (कर्म, बल, वीर्य), पौरुष और पराक्रम से प्राप्त हुआ है, अथवा अनुत्थान, अकर्म, अबल, अवीर्य, अपौरुष या अपराक्रम से? अर्थात् कर्म, बल आदि का उपयोग न करने से ये मिले हैं ? देव का उत्तर 170. तए णं से देवे कुडकोलियं समणोवासयं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए इमेयारूवा दिव्वा देविड्डी 3 अणुट्ठाणेणं जाव' अपुरिसक्कारपरक्कमेणं लद्धा, पत्ता, अभिसमण्णागया। ___ वह देव श्रमणोपासक कुडकौलिक से बोला-देवानुप्रिय ! मुझे यह दिव्य ऋद्धि, द्युति एवं प्रभाव—यह सब बिना उत्थान, पौरुष एवं पराक्रम से ही उपलब्ध हुया है। कुडकौलिक द्वारा प्रत्युत्तर 171. तए णं से कुडकोलिए समणोवासए तं देवं एवं बयासो-जइ णं देवा ! तुमे इमा एयारूवा दिव्वा देविड्डी 3 अणुट्टाणेणं जाव' अयुरिसक्कार-परक्कमेणं लद्धा, पत्ता, अभिसमण्णागया, जेसि णं जीवाणं नत्थि उट्ठाणे इ वा, परक्कमे इ वा, ते कि न देवा? अह णं, देवा! तुमे इमा एयारूवा दिव्वा देविड्डी 3 उट्ठाणेणं जाव परक्कमेणं लद्धा, पत्ता, अभिसमग्णागया, तो जं वदसि-- सुन्दरी गं गोसालस्स मंखलि-पुत्तस्स धम्मपण्णत्ती-नस्थि उदाणे इवा, जाव' नियया सव्वभावा, मंगुली णं समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्म-पण्णत्ती–अत्थि उट्ठाणे इ वा, जाव' अणियया सन्वभावा, तं ते मिच्छा। तब श्रमणोपासक कुडकौलिक ने उस देव से कहा-देव ! यदि तुम्हें यह दिव्य ऋद्धि प्रयत्न, पुरुषार्थ, पराक्रम आदि किए बिना ही प्राप्त हो गई, तो जिन जीवों में उत्थान, पराक्रम आदि 1. देखें सूत्र-संख्या 168 2. देखें सूत्र-संख्या 169 3. देखें सूत्र-संख्या 169 4. देखें सूत्र-संख्या 169 5. देखें सूत्र-संख्या 169 6. देखें सूत्र-संख्या 168 Jain 'Education International For Private &Personal use only. www.jainelibrary.org