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________________ छठा अध्ययन : कुंडकौलिक] [133 विवेचन मखोलपुत्र गोशालक का भगवतीसूत्र के १५वें शतक में विस्तार से वर्णन है। प्रागमोत्तर साहित्य में भी आवश्यक-नियुक्ति आदि में उससे सम्बद्ध घटनाओं का उल्लेख है / बौद्ध साहित्य में मज्झिमनिकाय, अंगुत्तरनिकाय, संयुत्तनिकाय आदि ग्रन्थों में उसका वर्णन है / दीघनिकाय पर बुद्धघोष द्वारा रचित सुमंगलविलासिनी टीका के 'सामञफलसुत्तवण्णन' में गोशालक के सिद्धान्तों की विशद चर्चा है / गोशालक भगवान महावीर के समसामयिक अवैदिक परम्परा के छह प्रमुख आचार्यों में था। . भगवतीसूत्र में उल्लेख है, मंख (डाकोत) जातीय मंखलि नामक एक व्यक्ति था। उसकी पत्नी का नाम भद्रा था। मंखलि भिक्षोपजीवी था। वह इस निमित्त एक चित्रपट हाथ में लिए रहता था। अपनी गर्भवती पत्नी भद्रा के साथ भिक्षार्थ घूमता हुआ वह एक बार सरवण नामक गांव में पहुँचा / वहाँ और स्थान न मिलने से वह चातुर्मास व्यतीत करने के लिए गोबहुलनामक ब्राह्मण की गोशाला में टिका / गर्भकाल पूरा होने पर भद्रा ने एक सुन्दर एवं सुकुमार शिशु को जन्म दिया। गोबहुल की गोशाला में जन्म लेने के कारण शिशु का नाम गोशाल या गोशालक रखा गया। ____गोशालक क्रमशः बड़ा हुअा, पढ़-लिखकर योग्य हुआ। वह भी स्वतन्त्र रूप से चित्रपट हाथ में लिए भिक्षा द्वारा अपनी आजीविका चलाने लगा। एक बार भगवान् महावीर राजगृह के बाहर नालन्दा के बुनकरों की तन्तुवायशाला के एक भाग में अपना चातुर्मासिक प्रवास कर रहे थे। संयोगवश गोशालक भी वहाँ पहुँचा / अन्य स्थान न मिलने पर उसने उसी तन्तुवायशाला में चातुर्मास किया। वहाँ रहते वह भगवान् के अनुपम अतिशय ली व्यक्तित्व तथा समय-समय पर घटित दिव्य घटनाओं से विशेष प्रभावित हआ। उसने भगवान के पास दीक्षित होना चाहा। भगवान ने उसे दीक्षा देना स्वीकार नहीं किया। जब उसने आगे भी निरन्तर अपना प्रयास चालू रखा और पीछे ही पड़ गया, तब भगवान् ने उसे शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया। वह छह वर्ष तक भगवान् के साथ रहा। उनसे विपुल तेजोलेश्या प्राप्त की, फिर वह भगवान् से पृथक् हो गया / स्वयं अपने को अर्हत्, तीर्थकर, जिन और केवली कहने लगा। आगे चलकर एक ऐसा प्रसंग बना, द्वेष एवं जलनवश उसने भगवान् पर तेजोलेश्या का प्रक्षेप किया। सर्वथा सम्पूर्ण रूप में अहिंसक होने के कारण भगवान् समभाव से उसे सह गए। तेजोलेश्या भगवान् महावीर को पराभूत नहीं कर सकी। वापस लौटी, गोशालक की देह में प्रविष्ट हो गई / गोशालक पित्तज्वर और घोर दाह से युक्त हो सात दिन बाद मर गया। भगवती में आए वर्णन का यह अतिसंक्षिप्त सारांश है। प्रस्तुत प्रसंग में आई कुडकौलिक की घटना तब की है, जब गोशालक भगवान् महावीर से पृथक् था तथा अपने को अर्हत्, जिन, केवली कहता हुआ जनपद विहार करता था। कुडकौलिक का प्रश्न 169. तए णं से कुडकोलिए समणोवासए तं देवं एवं वयासी-जइ णं देवा ! सुन्दरी गोसालस्स मंखलि-पुत्तस्स धम्म-पण्णत्ती-नस्थि उट्ठाणे इ वा जाव (कम्मे इ वा, बले इ वा, वोरिए इ वा, पुरिसक्कार-परक्कमे इ वा), नियया सव्व-भावा, मंगुली णं समणस्स भगवओ महावीरस्स Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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