________________ 132] [उपासकदशांगसूत्र में द्रौपदी के जन्म आदि का वर्णन है। इस समय यह बदायू और फर्रुखाबाद के बीच बूढ़ी गंगा के किनारे कम्पिल नामक ग्राम के रूप में अवस्थित है / कभी यह जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र रहा था / अागमों में प्राप्त संकेतों से प्रकट होता है, भगवान् महावीर के समय में यह बहुत ही समृद्ध नगर था / अशोकवाटिका में ध्यान-निरत 166. तए णं से कुडकोलिए समणोवासए अन्नया कयाइ पुव्वावरण्ह-कालसमयंसि जेणेव असोगवणिया, जेणेव पुढवि-सिला-पट्टए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता नाम-मुद्दगं च उत्तरिज्जगं च पुढवि-सिला-पट्टए ठवेइ, ठवेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपत्ति उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। एक दिन श्रमणोपासक कुडकौलिक दोपहर के समय अशोकवाटिका में गया। उसमें जहाँ पृथ्वी-शिलापट्टक था, वहाँ पहुंचा। अपने नाम से अंकित अंगूठी और दुपट्टा उतारा / उन्हें पृथ्वीशिलापट्टक पर रखा / रखकर, श्रमण भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति-धर्म-शिक्षा के अनुरूप उपासना-रत हुआ / देव द्वारा नियतिवाद का प्रतिपादन 167. तए णं तस्स कुडकोलियस्स समणोवासयस्स एगे देवे अंतियं पाउन्भवित्था / श्रमणोपासक कुडकौलिक के समक्ष एक देव प्रकट हुअा। 168. तए णं से देवे नाम-मुदं च उत्तरिज्जं च पुढवि-सिला-पट्टयाओ गेण्हइ, गेव्हित्ता सखिर्खािण अंतलिक्ख-पडिवन्न कंडकोलियं समणोवासयं एवं वयासी हं भो! कंडकोलिया! समणोवासया ! सुन्दरी णं देवाणुप्पिया ! गोसालस्स मंखली-पुत्तस्स धम्म-पण्णत्तीनस्थि उट्ठाणे इ वा, कम्मे इ वा, बले इ वा, वोरिए इ वा, पुरिसक्कार-परक्कमे इ वा, नियया सव्व-भावा, मंगुली गं समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्म-पण्णत्ती-अत्थि उट्ठाणे इ वा, जाव ( कम्मे इ वा, बले इ वा, पुरिसक्कार-) परक्कमे इ वा, अणियया सव्व-भावा / __ उस देव ने कुडकौलिक की नामांकित मुद्रिका और दुपट्टा पृथ्वीशिलापट्टक से उठा लिया / वस्त्रों में लगी छोटी-छोटी घंटियों की झनझनाहट के साथ वह आकाश में अवस्थित हुआ, श्रमणोपासक कुडकौलिक से बोला-कुडकौलिक ! देवानुप्रिय ! मंखलिपुत्र गोशालक की धर्म-प्रज्ञप्तिधर्म-शिक्षा सुन्दर है / उसके अनुसार उत्थान साध्य के अनुरूप ऊर्ध्वगामी प्रयत्न, कर्म, बल-~-दैहिक शक्ति, वीर्य-आन्तरिक शक्ति, पुरुषकार---पौरुष का अभिमान, पराक्रम -पौरुष के अभिमान के अनुरूप उत्साह एवं प्रोजपूर्ण उपक्रम-इनका कोई स्थान नहीं है / सभी भाव-होनेवाले कार्य नियत-निश्चित हैं / उत्थान, (कर्म, बल, वीर्य, पौरुष,) पराक्रम इन सबका अपना अस्तित्व है, सभी भाव नियत नहीं हैं-भगवान् महावीर की यह धर्म-प्रज्ञप्ति-धर्म-प्ररूपणा असुन्दर या अशोभन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org