________________ / / 98] [उपासकदशांगसूत्र योग्य कैसे रहा कि उसे आकाश में फेंका जा सके, रौंदा जा सके, कुचला जा सके। यहां ऐसी बात है-वह मिथ्यात्वी देव कामदेव को घोर कष्ट देना चाहता था, ताकि कामदेव अपना धर्म छोड़ दे / प्रथवा उसकी धार्मिक दढता की परीक्षा करना चाहता था। उसे मारना नहीं चाहता था। वैक्रियलब्धिधारी देवों की यह विशेषता होती है, वे देह के पुद्गलों को जिस त्वरा से विच्छिन्न करते हैं--- काट डालते हैं, तोड़-फोड़ कर देते हैं, उसी त्वरा से तत्काल उन्हें यथावत् संयोजित भी कर सकते हैं। यह सब इतनी शीघ्रता से होता है कि भाक्रान्त व्यक्ति को घोर पीडा का तो अनुभव होता है, यह भी अनुभव होता है कि वह काट डाला गया है, पर देह के पुद्गलों की विच्छिन्नता या पृथक्ता की दशा अत्यन्त अल्पकालिक होती है। इसलिए स्थूल रूप में शरीर वैसा का वैसा स्थित प्रतीत होता है / कामदेव के साथ ऐसा ही घटित हुआ / कामदेव ने घोर कष्ट सहे, पर वह धर्म से विचलित नहीं हुआ। तब देव अपने मूल रूप में उपस्थित हुआ और उसने वह सब कहा, जिससे विद्वेषवश कामदेव को कष्ट देने हेतु वह दुष्प्रेरित हुआ था। वहां इन्द्र तथा उसके देव-परिवार के वर्णन में तीन परिषदें, आठ पटरानियों के परिवार, सात सेनाएं आदि का उल्लेख है, जिनका विस्तार इस प्रकार है--- सौधर्म देवलोक के अधिपति शक्रेन्द्र की तीन परिषदें होती हैं-शमिताप्राभ्यन्तर, चण्डा-मध्यम तथा जाता–बाह्य / आभ्यन्तर परिषद् में बारह हजार देव और सात सौ देवियां, मध्यम परिषद् में चौदह हजार देव और छह सौ देवियां तथा बाह्य परिषद् में सोलह हजार देव और पांच सौ देवियां होती हैं। आभ्यन्तर परिषद् में देवों की स्थिति पांच पल्योपम, देवियों की स्थिति तीन पल्योपम, मध्यम परिषद् में देवों की स्थिति चार पल्योपम, देवियों की स्थिति दो पल्योपम तथा बाह्य परिषद् में देवों की स्थिति तीन पल्योपम, देवियों को स्थिति एक पल्योपम होती है। __ अग्रमहिषी-परिवार–प्रत्येक अनमहिषी-पटरानी के परिवार में पांच हजार देवियां होती हैं। यों इन्द्र के अन्तःपुर में चालीस हजार देवियों का परिवार माना जाता है। सेनाएँ-हाथी, घोड़े, बैल, रथ तथा पैदल-ये पाँच सेनाएँ लड़ने हेतु होती हैं तथा दो सेनाएं- गन्धर्वानीक-गाने-बजाने वालों का दल और नाटयानीक-नाटक करने : आमोद-प्रमोदपूर्वक तदर्थ उत्साह बढ़ाने हेतु होती हैं। इस सूत्र में शतक्रतु तथा सहस्राक्ष आदि इन्द्र के कुछ ऐसे नाम पाए हैं, जो वैदिक परम्परा में भी विशेष प्रसिद्ध हैं। जैनपरम्परा के अनुसार इन नामों का कारण एवं इनकी सार्थकता पहले अर्थ में बतलायी जा चुकी हैं। वैदिक परम्परा के अनुसार इन नामों का कारण दूसरा है। वह इस प्रकार है :---- शतऋतु-ऋतु का अर्थ यज्ञ है। सौ यज्ञ सम्पूर्ण रूप में सम्पन्न कर लेने पर इन्द्र-पद प्राप्त होता है, वैदिक परम्परा में ऐसी मान्यता है / अतः शतऋतु सौ यज्ञ पूरे कर इन्द्र पद पाने के अर्थ में प्रचलित है। सहस्राक्ष-इसका शाब्दिक अर्थ हजार नेत्रवाला है। इन्द्र का यह नाम पड़ने के पीछे एक पौराणिक कथा बहुत प्रसिद्ध है / ब्रह्मवैवर्त पुराण में उल्लेख है-इन्द्र एक बार मन्दाकिनी के तट पर स्नान करने गया। वहाँ उसने गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या को नहाते देखा। इन्द्र की बुद्धि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org