________________ द्वितीय अध्ययन : कामदेव] [97 विवेचन प्रस्तुत सूत्र में देव द्वारा पिशाच, हाथी तथा सर्प का रूप धारण करने के प्रसंग में 'विकुव्वई'-विक्रिया या विकुर्वणा करना-क्रिया का प्रयोग है, जो उसकी देव-जन्मलभ्य वैक्रिय देह का सूचक है। इस सन्दर्भ में ज्ञातव्य है-जैन-दर्शन में औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मणये पांच प्रकार के शरीर माने गए हैं। वैक्रिय शरीर दो प्रकार का होता है-औपपातिक और लब्धि. प्रत्यय / औपपातिक वैक्रिय शरीर देव-योनि और नरक-योनि में जन्म से ही प्राप्त होता है। पूर्वसंचित कर्मों का ऐसा योग वहां होता है, जिसकी फल-निष्पत्ति इस रूप में जन्म-जात होती है / लब्धि-प्रत्यय वैक्रिय शरीर तपश्चरण आदि द्वारा प्राप्त लब्धि-विशेष से मिलता है। यह मनुष्ययोनि एवं तिर्यञ्च योनि में होता है। वैक्रिय शरीर में अस्थि, मज्जा, मांस, रक्त आदि अशुचि-पदार्थ नहीं होते / एतद्वजित इष्ट, कान्त, मनोज्ञ, प्रिय एवं श्रेष्ठ पुद्गल देह के रूप में परिणत होते हैं / मृत्यु के बाद वैक्रिय-देह का शव नहीं बचता / उसके पुद्गल कपूर की तरह उड़ जाते हैं। जैसा कि वैक्रिय शब्द से प्रकट है इस शरीर द्वारा विविध प्रकार की विक्रियाएं-विशिष्ट क्रियाएं की जा सकती हैं, जैसे--एक रूप होकर अनेक रूप धारण करना, अनेक रूप होकर एक रूप धारण करना, छोटी देह को बड़ी बनाना, बड़ी को छोटी बनाना, पृथ्वी एवं आकाश में चलने योग्य विविध प्रकार के शरीर धारण करना, अदृश्य रूप बनाना इत्यादि। सौधर्म आदि देवलोकों के देव एक, अनेक, संख्यात, असंख्यात, स्व-सदृश, विसदृश सब प्रकार की विक्रियाएं या विकुर्वणाएं करने में सक्षम होते हैं। वे इन विकुर्वणानों के अन्तर्गत एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक सब प्रकार के रूप धारण कर सकते हैं। प्रस्तुत प्रकरण में श्रमणोपासक कामदेव को कष्ट देने के लिए देव ने विभिन्न रूप धारण किए। यह उसके उत्तरवैक्रिय रूप थे, अर्थात् मूल वैक्रिय शरीर के आधार पर बनाए गए वैक्रिय शरीर थे। श्रमणोपासक कामदेव को पीडित करने के लिए देव ने क्यों इतने उपद्रव किए, इसका समाधान इसी सूत्र में है। वह देव मिथ्यादृष्टि था। मिथ्यात्वी होते हुए भी पूर्व जन्म में अपने द्वारा किए गए तपश्चरण से देव-योनि तो उसे प्राप्त हो सकी, पर मिथ्यात्व के कारण निर्ग्रन्थ-प्रवचन या जिन-धर्म के प्रति उसमें जो अश्रद्धा थी, वह देव होने पर भी विद्यमान रही / इन्द्र के मुख से कामदेव की प्रशंसा सुन कर तथा, उत्कट धर्मोपासना में कामदेव को तन्मय देख उसका विद्वेष भभक उठा, जिसका परिणाम कामदेव को निर्ग्रन्थ-प्रवचन से विचलित करने के लिए क्रूर तथा उग्र कष्ट देने के रूप में प्रस्फुटित हुआ। पिशाचरूपधर देव द्वारा तेज तलवार से कामदेव के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए, कामदेव अपनी उपासना से नहीं हटा। तब देव ने दुर्दान्त, विकराल हाथी का रूप धारण कर उसे आकाश में उछाला, दांतों से भेला, पैरों से रौंदा / उसके बाद भयावह सर्प के रूप में उसे उत्पीडित किया। यह सब कैसे संभव हो सका? देह के टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाने पर कामदेव इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org