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________________ 162] [उपासकदशांगसूत्र लम्बी यात्राओं में लूट-खसोट का भी भय था, जो सार्थ में नहीं होता, क्योंकि सार्थवाह आरक्षकों का एक शस्त्र-सज्जित दल भी अपने साथ लिए रहता था। यों छोटे व्यापारी अपने अल्पतम साधनों से भी दूर-दूर व्यापार कर पाने में सहारा पा लेते / सामाजिकता की दृष्टि से वास्तव में यह परम्परा बड़ी उपयोगी और महत्त्वपूर्ण थी। इसीलिए उन दिनों सार्थवाह की बड़ी सामाजिक प्रतिष्ठा और सम्मान था। जैन आगमों में ऐसे अनेक सार्थवाहों का वर्णन है। उदाहरणार्थ, नायाधम्मकहानो के १५वें अध्ययन में धन्य सार्थवाह का वर्णन है। जब वह चंपा से अहिच्छत्रा की व्यापारिक यात्रा करना चाहता है तो वह नगर में सार्वजनिक रूप में इसी प्रकार की घोषणा कराता है कि उसके साथ में जो भी चलना चाहे, सहर्ष चले। आचार्य हरिभद्र ने समरादित्यकथा के चौथे भव में धन नामक सार्थवाहपुत्र की ऐसी ही यात्रा की चर्चा की है, जब वह अपने निवास-स्थान सुशर्मनगर से ताम्रलिप्ति जा रहा था / उसने भी इसी प्रकार से अपनी यात्रा की घोषणा करवाई / भगवान् महावीर को 'महासार्थवाह' के रूपक से वणित करने के पीछे महासार्थवाह शब्द के साथ रहे सामाजिक सम्मान का सूचन है। जैसे महासार्थवाह सामान्य जनों को अपने साथ लिए चलता है, बहुत बड़ी व्यापारिक मंडी पर पहुंचा देता है, वैसे ही भगवान महावीर संसार में भटकते प्राणियों को मोक्ष-जो जीवन-व्यापार का अन्तिम लक्ष्य है, तक पहुंचने में सहारा देते हैं। 219. तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-तुम्भे णं देवाणुप्पिया ! इयच्छेया जाव ( इयदच्छा, इयपट्ठा, ) इयनिउणा, इय-नयवादी, इय-उपएसलद्धा, इय-विण्णाण-पत्ता, पभू णं तुब्भे मम धम्मायरिएणं धम्मोवएसएणं भगवया महावीरेणं सद्धि विवादं करेत्तए ? नो तिणठे समठे ! से केणढेणं, देवाणुप्पिया! एवं वच्चइ नो खलु पभू तुब्भे ममं धम्मारिएणं जाव (धम्मोवएसएणं, समणेणं भगवया) महावीरेणं सद्धि विवादं करेत्तए ? सद्दालपुत्ता ! से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे जुगवं जाव (बलवं, अप्पायंके, थिरग्गहत्थे, पडिपुण्णपाणिपाए, पिठंतरोरुसंघायपरिणए, घनिचियवट्टपालिखंधे, लंघण-पवण-जइण-वायामसमत्थे, चम्मेद्व-दुधण-मुट्ठिय-समाहय-निचिय-गत्ते, उरस्सबलसमन्नागए, तालजमलजुयलबाहू, छए, दक्खे, पत्तो ) निउण-सिप्पोवगए एग महं अयं वा, एलयं वा, सूयरं वा, कुक्कुडं वा, तित्तिरं वा, वट्टयं वा, लावयं वा, कवोयं वा, कविजलं वा, वायसं वा, सेणयं वा हत्थंसि वा, पायंसि वा, खुरंसि वा, पुच्छंसि बा, पिच्छंसि वा, सिंगंसि वा, विसाणंसि वा, रोमंसि वा जहि जहिं गिण्हइ, तहि तहि निच्चलं निप्पंदं धरेइ / एवामेव समणे भगवं महावीरे ममं बहूहि अद्वेहि य हेऊहि य जाव ( पसिणेहि य कारणेहि य ) वागरणेहि य जहि जहि गिण्हइ तहिं तहिं निप्पट्ठ-पसिण-वागरणं करेइ / से तेण→णं, सद्दालपुत्ता ! एवं वुच्चइ नो खलु पभू अहं तव धम्मायरिएणं, जाव' महावीरेणं सद्धि विवादं करेत्तए। 1. देखें सूत्र यही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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