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________________ 22] [उपासकदशांगसूत्र अगारधम्म दुवालसविहं आइक्खइ, तं जहा-पंच अणुव्वयाई, तिणि गुणब्वयाई, चत्तारि सिक्खावयाई। पंच अणुव्वयाइं तं जहा थूलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, थूलाओ मुसावायाओ वेरमणं, थूलाओ अदिण्णादाणाओ बेरमणं, सदारसंतोसे, इच्छापरिमाणे / तिष्णि गुणध्वयाइं तं जहा अणत्थदंडवेरमणं, दिसिव्वयं, उवभोग-परिभोगपरिमाणं / चत्तारि सिक्खावयाई तं जहा-~सामाइयं देसावगासियं, पोसहोववासे, अतिहि-संविभागे, अपच्छिमा-मारणंतिया-संलेहणा-सूसणाराहणा, अयमाउसो ! अगार-सामाइए धम्मे पण्णत्ते एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उवट्ठिए समणोबासए वा समणोवासिया वा बिहरमाणे आणाए आराहए भवइ / तए णं सा महइमहालिया मणूसपरिसा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा णिसम्म हट्ठ-तट्ठा चित्तमाणंदिया, पोइमणा, परमसोमणस्सिया, हरिसवस-विसप्पमाण-हियया उट्ठाए, उ8इ उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं तिवखुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदई णमंसइ, बंदित्ता णमंसित्ता अत्थेगइआ मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइए / अत्थेगइया पंचाणुव्वइयं सतसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवण्णा / अवसेसा णं परिसा समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी सुयक्खाए ते भंते ! णिग्गंथे पावयणे, एवं सुपण्णत्ते, सुभासिए, सुविणोए, सुभाविए, अणुत्तरे ते भंते ! णिग्गंथे पावयणे / धम्म णं आइक्खमाणा तुम्भं उवसमं आइक्खह / उवसमं आइक्खमाणा विवेगं आइक्खह / विवेग आइक्खमाणा वेरमणं आइक्खह / वेरमणं आइक्खमाणा अकरणं पावाणं कम्माणं आइक्खह / णस्थि णं अण्णे केइ समणे वा माहणे वा जे एरिसं धम्ममाइक्खित्तए / किमंग पुण एत्तो उत्तरतरं ! एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउब्भूआ तामेव दिसं पडिगया) राया य गओ तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने आनन्द गाथापति तथा महती परिषद् को धर्मोपदेश किया। [भगवान् महावीर की धर्मदेशना सुनने को उपस्थित परिषद् में ऋषि-द्रष्टा-अतिशय ज्ञानी साधु, मुनि- मौनी या वाक्संयमी साधु, यति–चारित्र के प्रति अति यत्नशील श्रमण, देवगण तथा सैकड़ों-सैकड़ों श्रोताओं के समूह उपस्थित थे।] ___ अोघ बली [अव्यवच्छिन्न या एक समान रहने वाले बल के धारक, अतिबली-अत्यधिक बल-सम्पन्न, महाबली,-प्रशस्त बलयुक्त, अपरिमित-असीम वीर्य-आत्मशक्तिजनित बल, तेज, महत्ता तथा कांतियुक्त, शरत्काल के नतन मेघ के गर्जन, क्रौंच पक्षी के निर्घोष तथा नगाड़े की ध्वनि के समान मधुर गम्भीर स्वर युक्त भगवान महावीर ने हृदय में विस्तृत होती हुई, कंठ में अवस्थित होती हुई तथा मूर्धा में परिव्याप्त होती सुविभक्त अक्षरों को लिए हुए-पृथक्-पृथक् स्व-स्व स्थानीय उच्चारणयुक्त अक्षरों सहित, अस्पष्ट उच्चारण वजित या हकलाहट से रहित, सुव्यक्त अक्षरसन्निपात-वर्ण-संयोग–वर्णों की व्यवस्थित शृखला लिए हुए, पूर्णता तथा स्वर-माधुरीयुक्त, श्रोताओं की सभी भाषाओं में परिणत होने वाली वाणी द्वारा एक योजन तक पहुँचने वाले स्वर में, अर्द्धमागधी भाषा में धर्म का परिकथन किया। उपस्थित सभी प्रार्य-अनार्य जनों को अग्लान भाव से—बिना परिश्रान्त हुए धर्म का आख्यान किया। भगवान् द्वारा उद्गीर्ण अर्द्धमागधी भाषा उन सभी आर्यों और अनार्यों की भाषाओं में परिणत हो गई। भगवान ने जो धर्मदेशना दी, वह इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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