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________________ [उपासकदशांगसूत्र धन-धान्यप्रमाणातिक्रम-मणि, मोती, हीरे, पन्ने आदि रत्न तथा खरीदने-बेचने की वस्तुओं को यहाँ धन कहा गया है / चावल, गेहूँ, जौ, चने आदि अनाज धान्य में आते हैं / धन एवं धान्य के परिमाण को लांघना इस व्रत का अतिचार है / / कुप्यप्रमाणातिक्रम-कूप्य का तात्पर्य घर का सामान है, जैसे कपड़े, खाट, आसन, बिछौने, फर्नीचर आदि / इस संबंध में की गई सीमा का लंघन इस व्रत का अतिचार है। यहाँ यह स्मरणीय है कि यह उल्लंघन जब अबुद्धिपूर्वक होता है, अर्थात् वास्तव में उल्लंघन तो होता हो किन्तु व्रतधारक ऐसा समझता हो कि उल्लंघन नहीं हो रहा है, तभी तक वह अतिचार है / जानबूझ कर मर्यादा का अतिक्रमण करने पर अनाचार हो जाता है / दिक्षित के अतिचार 50. तयाणंतरं च णं दिसिब्वयस्स पंच अइयारा जाणियब्वा, न समायरियव्वा / तं जहा--- उड्ढदिसिपमाणाइक्कमे, अहोदिसिपमाणाइक्कमे, तिरियदिसिपमाणाइक्कमे, खेतवुड्ढी, सइअंतरद्धा। तदनन्तर दिग्व्रत के पांच अतिचारों को जानना चाहिए। उनका आचरण नहीं करना चाहिए / वे इस प्रकार हैं ऊर्ध्वदिक्-प्रमाणातिक्रम, अधोदिक्-प्रमाणातिक्रम, तिर्यक्दिक्-प्रमाणातिक्रम, क्षेत्र-वृद्धि, स्मृत्यन्तर्धान। विवेचन ऊर्ध्वदिक-प्रमाणातिक्रम-ऊर्ध्व दिशा-ऊंचाई की ओर जाने को मर्यादा का अतिक्रमण, अधोदिक्-प्रमाणातिक्रम-नीचे की ओर कुए, खदान आदि में जाने की मर्यादा का अतिक्रमण, तिर्यकदिप्रमाणातिक्रम-तिरछी दिशाओं में जाने की मर्यादा का अतिक्रमण, क्षेत्र-वृद्धि-व्यापार, यात्रा प्रादि के लिए की गई क्षेत्रमर्यादा का अतिक्रमण, स्मृत्यन्तर्धान अपने द्वारा की गई दिशांत्रों आदि की मर्यादा को स्मृति में न रखना—ये इस व्रत के अतिचार हैं। व्रतग्रहण के प्रसंग में यद्यपि दिशाव्रत और शिक्षावतों के ग्रहण करने का उल्लेख नहीं है / तब भी इन व्रतों का ग्रहण समझ लेना चाहिए, क्योंकि पूर्व में आनन्द ने कहा है—'दुवालसविहं सावयधम्म पडिवज्जिस्सामि / ' आगे भी 'दुवालसविहं सावगधम्म पडिवज्जइ' ऐसा पाठ आया है / टीकाकार ने स्पष्टीकरण करते हुए कहा है--सामायिक आदि शिक्षाव्रत थोड़े काल के और अमुक समय करने योग्य होने से आनन्द ने उस समय ग्रहण नहीं किए। दिग्वत भी उस समय ग्रहण नहीं किया, क्योंकि उसकी विरति का अभाव है। उपभोग-परिभोग-परिमाण-व्रत के अतिचार 51. तयाणंतरं च णं उवभोगपरिभोगे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा–भोयणओ य, कम्मओ य / तत्य णं भोयणओ समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियब्वा न समायरियव्या, तं जहा-सचित्ताहारे, सचित्तपडिवद्धाहारे, अप्पलिओसहिभक्खणया, दुप्पउलिओसहिभक्खणया, तुच्छोसहिभक्खणया। कम्मओ णं समणोवासएणं पण्णरस कम्मादाणाई जाणियव्वाइं, न समायरिब्वाइं, तं जहा-इंगालकम्मे, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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