________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [45 काम-भोगतीवाभिलाष-नियंत्रित और व्यवस्थित काम-सेवन मानव की आत्म-दुर्बलता के कारण होता है। उस आवश्यकता की पूर्ति तक व्रत दूषित नहीं होता है, परन्तु उसे काम की तीव्र अभिलाषा या उद्दाम वासना से ग्रस्त नहीं होना चाहिए, क्योंकि उससे व्रत का उल्लंघन हो सकता है और मर्यादा भंग हो सकती है तथा अन्य अतिचारों-अनाचारों में प्रवृत्ति हो सकती है। तीव्र वैषयिक वासनावश कामोद्दीपक, बाजीकरण औषधि, मादक द्रव्य आदि के सेवन द्वारा व्यक्ति वैसा न करे / चारित्रिक दृष्टि से यह बहुत आवश्यक है / वैसा करना इस व्रत का पांचवां अतिचार है, जिससे उपासक को सर्वथा बचते रहना चाहिए। इच्छा-परिमाणवत के अतिचार 49. तयाणंतरं च णं इच्छा-परिमाणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियन्वा, न समायरियव्वा / तं जहा-खेत्त-वत्थु-पमाणाइक्कमे, हिरण्ण-सुवण्णपमाणाइक्कमे, दुपय-चउप्पयपमाणाइक्कमे, धण-धन्नपमाणाइक्कमे, कुवियपमाणाइक्कमे / श्रमणोपासक को इच्छा-परिमाण-व्रत के पांच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए / वे इस प्रकार हैं क्षेत्रवास्तु-प्रमाणातिक्रम, हिरण्यस्वर्ण-प्रमाणातिक्रम, द्विपद-चतुष्पद-प्रमाणातिक्रम, धनधान्य-प्रमाणातिक्रम, कुप्य-प्रमाणातिक्रम। विवेचन धन, वैभव, संपत्ति का सांसारिक जीवन में एक ऐसा आकर्षण है कि समझदार और विवेकशील व्यक्ति भी उसकी मोहकता में फंसा रहता है / इच्छा-परिमाण-व्रत उस मोहकता से छुटकारा दिलाने का मार्ग है / व्यक्ति सांपत्तिक संबंधों को क्रमश: सीमित करता जाय, यही इस व्रत का लक्ष्य है / इस व्रत के जो अतिचार बतलाए गए हैं, उनका सेवन न करना व्यक्ति को इच्छाओं के सीमाकरण की विशेष प्रेरणा देता है। क्षेत्र-वास्त-प्रमाणातिक्रम-क्षेत्र का अर्थ खेती करने की भूमि है। उपासक व्रत लेते समय जितनी भमि अपने लिए रखता है, उसका अतिक्रमण वह न करे / वास्तु वित्थ] का के मकान, बगीचे आदि हैं / व्रत लेते समय श्रावक इनकी भी सीमा करता है / इन सीमाओं को लांघ जाना इस व्रत का अतिचार है। हिरण्य-स्वर्ण-प्रमाणातिक्रम-व्रत लेते समय उपासक सोना, चांदी आदि बहुमूल्य धातुओं का अपने लिए सीमाकरण करता है, उस सीमाकरण को लांघ जाना इस व्रत का अतिचार है / मोहर, रुपया आदि प्रचलित सिक्के भी इसी में आते हैं। द्विपद-चतुष्पद-प्रमाणातिक्रम-द्विपद-दो पैर वाले--मनुष्य-दास-दासी, नौकर-- नौकरानियां तथा चतुष्पद-चार पैर वाले--पशु; व्रत स्वीकार करते समय इनके संदर्भ में किये गए सीमाकरण का लंघन करना इस अतिचार में शामिल है / जैसा कि पहले सूचित किया गया है, उन दिनों दास-प्रथा का इस देश में प्रचलन था इसलिए गाय, बैल, भैस आदि पशुओं की तरह दास, दासी भी स्वामी की सम्पत्ति होते थे। रक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org