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________________ 44) [उपासकदशांगसूत्र विवेचन इत्वरिकपरिगृहीतागमन--इत्वरिक का अर्थ अस्थायी, अल्पकालिक या चला जाने वाला है। जो स्त्री कुछ समय के लिए किसी पुरुष के साथ रहती है और फिर चली जाती है, पर जितने समय रहती है, उसी की पत्नी के रूप में रहती है और किसी पुरुष के साथ उसका यौन सम्बन्ध नहीं रहता, उसे इत्वरिका कहा जाता था। यों कुछ समय के लिए पत्नी के रूप में परिगृहीत या स्वीकृत स्त्री के साथ सहवास करना / इत्वरिका का एक अर्थ अल्पवयस्का भी किया गया है / तदनुसार छोटी आयु की पत्नी के साथ सहवास करना / ये इस व्रत के अतिचार हैं / ये हीन कामुकता के द्योतक हैं / इससे अब्रह्मचर्य को प्रोत्साहन मिलता है। अपरिगृहीतागमन-अपरिगृहीता का तात्पर्य उस स्त्री से है, जो किसी के भी द्वारा पत्नी रूप में परिगृहीत या स्वीकृत नहीं है, अथवा जिस पर किसी का अधिकार नहीं है। इसमें वेश्या आदि का समावेश होता है / इस प्रकार की स्त्री के साथ सहवास करना इस व्रत का दूसरा अतिचार है / ये दोनों अतिचार अतिक्रम आदि की अपेक्षा से समझने चाहिए, अर्थात् अमुक सीमा तक ही ये अतिचार हैं। उस सीमा का उल्लंघन होने पर अनाचार बन जाते हैं।' अनंग-क्रीडा-कामावेशवश अस्वाभाविक काम-क्रीडा करना / इसके अन्तर्गत समलैंगिक संभोग, अप्राकृतिक मैथुन, कृत्रिम कामोपकरणों से विषय-वासना शान्त करना आदि समाविष्ट हैं / चारित्रिक दृष्टि से ऐसा करना बड़ा हीन कार्य है। इससे कुत्सित काम और व्यभिचार को पोषण मिलता है / यह इस व्रत का तीसरा अतिचार है। पर-विवाह-करण-जैनधर्म के अनुसार उपासक का लक्ष्य ब्रह्मचर्य-साधना है। विवाह तत्त्वतः आध्यात्मिक दृष्टि से जीवन की दुर्बलता है। क्योंकि हर कोई संपूर्ण रूप में ब्रह्मचारी रह नहीं सकता / गृही उपासक का यह ध्येय रहता है कि वह अब्रह्मचर्य से उत्तरोत्तर अधिकाधिक मुक्त होता जाय और एक दिन ऐसा आए कि वह सम्पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य का प्राराधक बन जाय / अतः गहस्थ को ऐसे कार्यों से बचना चाहिए, जो ब्रह्मचर्य के प्रतिगामी हों / इस दृष्टि से इस अतिचार की परिकल्पना है / इसके अनुसार दूसरों के वैवाहिक संबंध करवाना इस अतिचार में आता है / एक गृहस्थ होने के नाते अपने घर या परिवार के लड़के-लड़कियों के विवाहों में तो उसे सक्रिय और प्रेरक रहना ही होता है और वह अनिवार्य भी है, पर दूसरों के बैवाहिक संबंध करवाने में उसे उत्सुक और प्रयत्नशील रहना ब्रह्मचर्य-साधना की दृष्टि से उपयुक्त नहीं है / वैसा करना इस व्रत का चौथा अतिचार है / किन्हीं-किन्हीं प्राचार्यों ने अपना दूसरा विवाह करना भी इस अतिचार में ही माना है। व्यावहारिक दृष्टि से भी दूसरों के इन कार्यों में पड़ना ठीक नहीं है / उदाहरणार्थ, कहीं कोई व्यक्ति किन्हीं के वैवाहिक संबंध करवाने में सहयोगी है, वह संबंध हो जाय / संयोगवश उस संबंध का निर्वाह ठीक नहीं हो, अथवा अयोग्य संबंध हो जाय तो संबंध करवाने वाले को भी उलाहना सहना होता है / संबंधित लोग प्रमुखतः उसी को कोसते हैं कि इसके कारण यह अवांछित और दु:खद सम्बन्ध हुा / व्रती श्रावक को इससे बचना चाहिए। 1. अतिचारता चास्यातिक्रमादिभिः / अभयदेवकृतटीका / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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