________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [47 वणकम्मे, साडीकम्मे, भाडीकम्मे, फोडीकम्मे, दंतवाणिज्जे, लक्खावाणिज्जे, रसवाणिज्जें, विसवाणिज्जे, केसवाणिज्जे, जंतपोलणकम्मे, निल्लंछणकम्मे, दवग्गिदावणया, सरदहतलायसोसणया, असईजणपोसणया। उपभोग-परिभोग दो प्रकार का कहा गया है भोजन की अपेक्षा से तथा कर्म की अपेक्षा से / भोजन की अपेक्षा से श्रमणोपासक को उपभोग-परिभोग व्रत के पांच अतिचारों को जानना उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं-सचित्त आहार, सचित्तप्रतिबद्ध आहार, अपक्व-पोषधि-भक्षणता, दुष्पक्व-पोषधि-भक्षणता तथा तुच्छयोषधि-भक्षणता / कर्म की अपेक्षा से श्रमणोपासक को पन्द्रह कर्मादानों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए / वे इस प्रकार हैं अंगारकर्म, वनकर्म, शकटकर्म, भाटीकर्म, स्फोटनकर्म, दन्तवाणिज्य, लाक्षावाणिज्य, रसवाणिज्य, विषवाणिज्य, केशवाणिज्य, यन्त्रपीडनकर्म, निर्लाछनकर्म, दवाग्निदापन, सर-ह्रद-तडागशोषण तथा असती-जन-पोषण / विवेचन सचित्त आहार-सचित्त का अर्थ सप्राण या सजीव है। बिना पकाई या बिना उबाली हुई शाक-सब्जी, वनस्पति, फल, असंस्कारित अन्न, जल आदि सचित्त पदार्थों में हैं। यहाँ उनके खाने का प्रसंग है। ज्ञातव्य है कि श्रमणोपासक या श्रावक सचित्त वस्तुओं का सर्वथा त्यागी नहीं होता / ऐसा करना उसके लिए अनिवार्य भी नहीं है। वह अपनी क्षमता के अनुसार सचित्त वस्तुओं का त्याग करता है, एक सीमा करता है / कुछ का अपवाद रखता है, जिनका वह सेवन कर सकता है। जो मर्यादा उसने की है, असावधानी से यदि वह उसका उल्लंघन करता है तो यह सचित्त-आहार अतिचार में आ जाता है / यह असावधानी से सचित्त सम्बन्धी नियम का उल्लंघन करने की बात है, यदि जान-बूझ कर वह सचित्त-त्याग सम्बन्धी मर्यादा का खंडन करता है तो यह अनाचार हो जाता है, व्रत टूट जाता है / सचित्त-प्रतिबद्ध आहार-सचित्त वस्तु के साथ सटी हुई या लगी हुई वस्तु को खाना सचित्तप्रतिबद्ध आहार है, उदाहरणार्थ बड़ी दाख या खजूर को लिया जा सकता है। उनमें से प्रत्येक के दो भाग हैं-गुठली तथा गूदा या रस / गुठली सचित्त है, गूदा या रस अचित्त है, पर सचित्त से प्रतिबद्ध या संलग्न है / यह अतिचार भी उस व्यक्ति की अपेक्षा से है, जिसने सचित्त वस्तुओं की मर्यादा की है। यदि वह सचित्त-संलग्न का सेवन करता है तो उसकी मर्यादा भग्न होती है और यह अतिचार में आता है। __अपक्व-पोषधि-भक्षणता-पूरी न पकी हुई प्रोषधि, फल, चनों के छोले आदि खाना / पोषधि के स्थान पर 'प्रोदन' पाठ भी प्राप्त होता है। प्रोदन का अर्थ पकाए हुए चावल हैं, तदनुसार एक अर्थ होगा-कच्चे या अधपके चावल खाना। दुष्पक्व-पोषधि-भक्षणता-जो वनौषधियाँ, फल आदि देर से पकने वाले हैं, उन्हें पके जान कर पूरे न पके रूप में सेवन करना या बुरी रीति से-अतिहिंसा से पकाये गये पदार्थों का सेवन करना। जैसे छिलके समेत सेके हुए भट्ट, छिलके समेत बगारी हुई मटर की फलियाँ आदि; क्योंकि इस ढंग से पकाये हुए पदार्थों में त्रस जीवों की हिंसा भी हो सकती है।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org