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________________ में परिणत हो जाती है। उनके लिए हितकर, कल्याणकर तथा सुखकर होती है।'' आचारांगचूर्णि में भी इसी प्राशय का उल्लेख है। वहाँ कहा गया है कि स्त्री, बालक वृद्ध, अनपढ़--सभी पर कृपा कर सब प्राणियों के प्रति समदर्शी महापुरुषों ने अर्द्धमागधी भाषा में सिद्धान्तों का उपदेश किया / अर्द्धमागधी प्राकृत का एक भेद है। दशवकालिक वृत्ति में भगवान् के उपदेश का प्राकृत में होने का उल्लेख करते हुए पूर्वोक्त जैसा ही भाव व्यक्त किया गया है "चारित्र की कामना करने वाले बालक, स्त्री, वृद्ध, मूर्ख--अनपढ़-सभी लोगों पर अनुग्रह करने के लिए तत्त्वद्रष्टाओं ने सिद्धान्त की रचना प्राकृत में की / " अर्द्धमागधी भगवान् महावीर का युग एक ऐसा समय था, जब धार्मिक जगत् में अनेक प्रकार के आग्रह बद्धमूल थे। उनमें भाषा का आग्रह भी एक था / संस्कृत धर्म-निरूपण की भाषा मानी जाती थी। संस्कृत का जन-साधारण में प्रचलन नहीं था। सामान्य जन उसे समझ नहीं सकते थे / साधारण जनता में उस समय बोलचाल में प्राकृतों का प्रचलन था। देश-भेद से उनके कई प्रकार थे, मागधी. अर्द्धमागधी. शौरसेनी, पैशाची तथा महाराष्ट्री प्रमुख थीं। पूर्व भारत में अर्द्धमागधी और मागधी तथा पश्चिम में शौरसेनी का प्रचलन था / उत्तर-पश्चिम पैशाची का क्षेत्र था / मध्य देश में महाराष्ट्री का प्रयोग होता था / शौरसेनी और मागधी के बीच के क्षेत्र में अर्द्धमागधी का प्रचलन था। यों अर्द्धमागधी, मागधी और शौरसेनी के बीच की भाषा सिद्ध होती है / अर्थात् इसका कुछ रूप मागधी जैसा और कुछ शौरसेनी जैसा है, अर्द्धमागधी-आधी मागधी ऐसा नाम पड़ने में सम्भवतः यही कारण रहा हो। मागधी के तीन मुख्य लक्षण हैं। वहाँ श, ष, स-तीनों के लिए केवल तालव्य श का प्रयोग होता है। र के स्थान पर ल पाता है। अकारान्त संज्ञाओं में प्रथमा एक वचन उपयोग होता है / अर्द्धमागधी में इन तीन में लगभग आधे लक्षण मिलते हैं / तालव्य श का वहाँ बिलकुल प्रयोग नहीं होता / अकारान्त संज्ञाओं में प्रथमा एक वचन में ए का प्रयोग अधिकांश होता है / र के स्थान पर ल का प्रयोग कहीं-कहीं होता है। अर्द्धमागधी की विभक्ति-रचना में एक विशेषता और है, वहाँ सप्तमी विभक्ति में ए और म्मि के साथ-साथ अंसि प्रत्यय का भी प्रयोग होता है जैसे-नयरे नयरम्मि, नयरंसि / नवांगी टीकाकार प्राचार्य अभयदेव सूरि ने औपपातिकसूत्र में जहाँ भगवान महावीर की देशना के वर्णन के प्रसंग में अर्द्धमागधी भाषा का उल्लेख हुआ है, वहाँ अर्द्धमागधी को ऐसी भाषा 1. भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ / सावि य णं अद्धमागही भासा भासिज्जमाणी तेसि सव्वेसिं प्रारियमणारियाणं दुप्पय-चउप्पय-मिय-पसु-पक्खि-सरी सिवाणं अप्पणो हिय-सिव-सुहयभासत्ताए परिणमइ / -समवायांगसूत्र 34. 22. 23 / 2. बालस्त्रीवृद्धमूर्खाणां नृणां चारित्रकाक्षिणाम् / अनुग्रहार्थ तत्त्वज्ञ: सिद्धान्त: प्राकृतः कृतः / / -दशवकालिक वृत्ति पृष्ठ 223 / [15] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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