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________________ 56] [उपासकदशांगसूत्र मैं मर कर स्वर्ग प्राप्त करू तथा वहां के अतुल सुख भोगू। जीवित-आशंसाप्रयोग-प्रशस्ति, प्रशंसा, यश, कीर्ति आदि के लोभ से या मौत के डर से जीने की कामना करना / मरण-आशंसाप्रयोग-तपस्या के कारण होनेवाली भूख, प्यास तथा दूसरी शारीरिक प्रतिकूलताओं को कष्ट मान कर शीघ्र मरने की कामना करना, यह सोच कर कि जल्दी ही इन कष्टों से छुटकारा हो जाय / कामभोग-प्राशंसाप्रयोग-ऐहिक तथा पारलौकिक शब्द, रूप, रस, गन्ध तथा स्पर्शमूलक इन्द्रिय-सुखों को भोगने की कामना करना-ऐसी भावना रखना कि अमुक भोग्य पदार्थ * मुझे प्राप्त हों। इस अन्तिम साधना-काल में उपर्युक्त विचारों का मन में आना सर्वथा अनुचित है। इससे आन्तरिक पवित्रता बाधित होती है / जिस पुनीत और महान् लक्ष्य को लिए साधक साधना-पथ पर आरूढ होता है, इससे उस की पवित्रता घट जाती है। इसलिए साधक को इस स्थिति में बहुत ही जागरूक रहना अपेक्षित है। यों त्याग-तितिक्षा और अध्यात्म की उच्च भावना के साथ स्वयं मृत्यु को वरण करना जैन शास्त्रों में मृत्यु-महोत्सव कहा गया है / सचमुच यह बड़ी विचित्र और प्रशंसनीय स्थिति है। जहां एक ओर देखा जाता है, अनेक रोगों से जर्जर, अाखिरी सांस लेता हुअा भी मनुष्य जीना चाहता है, जीने के लिए कराहता है, वहां एक यह साधक है, जो पूर्ण रूप से समभाव में लीन होकर जीवनमरण की कामना से ऊपर उठ जाता है। नहीं समझने वाले कभी-कभी इसे आत्महत्या की संज्ञा देने लगते हैं। वे क्यों भूल जाते हैं, प्रात्म-हत्या क्रोध, दुःख, शोक, मोह आदि उग्र मानसिक आवेगों से कोई करता है, जिसे जीवन में कोई सहारा नहीं दीखता, सब ओर अंधेरा ही अंधेरा नजर आता है। यह आत्मा की कमजोरी का घिनौना रूप है / संलेखनापूर्वक आमरण अनशन तो आत्मा का हनन नहीं, उसका विकास, उन्नयन और उत्थान है, जहां काम, क्रोध, राग, द्वेष, मोह आदि से साधक बहुत ऊँचा उठ जाता है / प्रानन्द द्वारा अभिग्रह 58. तए णं से आणंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं सावय-धम्म पडिवज्जइ, पडिवज्जित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी नो खलु मे भंते ! कप्पइ अज्जप्पभिई अन्न-उत्थिए वा अन्न-उत्थियदेवयाणि वा अन्नउत्थियपरिग्गहियाणि चेइयाई वा वंदित्तए वा नमंसित्तए वा, पुदिव अणालत्तण आलवित्तए वा संलवित्तए वा, तेसि असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाउं वा, नन्नत्थ रायाभिओगेणं, गणाभिओगेणं, बलाभिओगेणं, देवयाभिओगेणं, गुरुनिग्गहेणं, वित्तिकंतारेणं। कप्पइ मे समणे निग्गंथे फासुएणं एसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पायपुञ्छणेणं, पीढफलग-सिज्जा-संथारएणं, ओसह-भेसज्जेण य पडिलाभेमाणस्स विहरित्तए –त्ति कटु इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ, अभिगिण्हित्ता पसिणाई पुच्छइ, पुच्छित्ता अट्ठाई आदियइ, आदित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदइ, वंदित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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