________________ 68] [उपासक दशांगसूत्र प्रतीक या प्रतिबिम्ब आदि का वाचक है, वहाँ इसका एक अर्थ प्रतिमान या मापदण्ड भी है। साधक जहाँ किसी एक अनुष्ठान के उत्कृष्ट परिपालन में लग जाता है, वहाँ वह अनुष्ठान या प्राचार उसका मुख्य ध्येय हो जाता है / उसका परियालन एक आदर्श उदाहरण या मापदण्ड का रूप ले लेता है। अर्थात् वह अपनी साधना द्वारा एक ऐसी स्थिति उपस्थित करता है, जिसे अन्य लोग उस पाचार का प्रतिमान स्वीकार करते हैं / यह विशिष्ट प्रतिज्ञारूप है। साधक अपना आत्म-बल संजोये प्रतिमानों की आराधना में पहली से दूसरी, दूसरी से तीसरी, तीसरी से चौथी—यों क्रमशः उत्तरोत्तर आगे बढ़ता जाता है / एक प्रतिमा को पूर्ण कर जब वह आगे की प्रतिमा को स्वीकार करता है, तब स्वीकृत प्रतिमा के नियमों के साथ-साथ पिछली प्रतिमानों के नियम भी पालता रहता है / ऐसा नहीं होता, अगली प्रतिमा के नियम स्वीकार किये, पिछली के छोड़ दिये / यह क्रम अन्त तक चलता है। आचार्य अभयदेव सूरि ने अपनी वृत्ति में संक्षेप में इन ग्यारह प्रतिमाओं पर प्रकाश डाला है। एतत्संबंधी गाथाएं भी उद्धृत की हैं / उपासक को प्रतिमाओं का संक्षिप्त विश्लेषण इस प्रकार है 1. दर्शनप्रतिमा–दर्शन का अर्थ दृष्टि या श्रद्धा है / दृष्टि या श्रद्धा वह तत्त्व है, जो आत्मा के अभ्युदय और विकास के लिए सर्वाधिक आवश्यक है / दृष्टि शुद्ध होगी, सत्य में श्रद्धा होगी, तभी साधनोन्मुख व्यक्ति साधना-पथ पर सफलता से गतिशील हो सकेगा / यदि दृष्टि में विकृति, शंका, अस्थिरता आ जाय तो आत्म-विकास के हेतु किए जाने वाले प्रयत्न सार्थक नहीं होते। वैसे श्रावक साधारणतया सम्यकदृष्टि होता ही है, पर इस प्रतिमा में वह दर्शन या दृष्टि की विशेष आराधना करता है / उसे अत्यन्त स्थिर तथा अविचल बनाए रखने हेतु वीतराग देव, पंचमहाव्रतधर गुरु तथा वीतराग द्वारा निरूपित मार्ग पर वह दृढ विश्वास लिए रहता है, एतन्मूलक चिन्तन, मनन एवं अनुशीलन में तत्पर रहता है। ___ दर्शनप्रतिमा का पाराधक श्रमणोपासक सम्यक्त्व का निरतिचार पालन करता है। उसके प्रतिपालन में शंका, कांक्षा आदि के लिए स्थान नहीं होता / वह अपनी आस्था में इतना दृढ होता है कि विभिन्न मत-मतान्तरों को जानता हुआ भी उधर प्राकृष्ट नहीं होता। वह अपनी प्रास्था, श्रद्धा या निष्ठा को अत्यन्त विशुद्ध बनाए रहता है। उसका चिन्तन एवं व्यवहार इसी आधार पर चलता है। दर्शनप्रतिमा की आराधना का समय एक मास का माना गया है। 2. व्रतप्रतिमा-दर्शन-प्रतिमा की आराधना के पश्चात् उपासक व्रत-प्रतिमा की आराधना करता है। व्रत-प्रतिमा में वह पांच अणुव्रतों का निरतिचार पालन करता है और तीन गुणवतों का भी। चार शिक्षाव्रतों को भी वह स्वीकार करता है, किन्तु उनमें सामायिक और देशावकाशिक व्रत का यथाविधि सम्यक् पालन नहीं कर पाता / वह अनुकम्पा आदि गुणों से युक्त होता है / इस प्रतिमा की आराधना का काल-मान दो मास का है। 3. सामायिकप्रतिमा सम्यक् दर्शन एवं व्रतों की पाराधना करने वाला साधक सामायिकप्रतिमा स्वीकार कर प्रतिदिन नियमतः तीन बार सामायिक करता है / इस प्रतिमा में वह सामायिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org