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________________ 150] [उपासकवशांगसूत्र दोपहर के समय तुम जब अशोकवाटिका में थे तब एक देव तुम्हारे समक्ष प्रकट हुआ, आकाशस्थित देव ने तुम्हें यों कहा-कल प्रातः अर्हत, केवली आएंगे। - भगवान् ने सकडालपुत्र को उसके द्वारा वंदन, नमन, पर्युपासना करने के निश्चय तक का सारा वृत्तान्त कहा। फिर उससे पूछा-सकडालपुत्र ! क्या ऐसा हुआ ? सकडालपुत्र बोला-ऐसा ही हुआ / तब भगवान् ने कहा—सकडालपुत्र ! उस देव ने मंखलिपुत्र गोशालक को लक्षित कर वैसा नहीं कहा था। सकडाल पर प्रभाव 193. तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासयस्स समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वृत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए 4 (चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे)-एस णं समणे भगवं महावीरे महामाहणे, उप्पन्न-णाणदंसणधरे, जाव' तच्च-कम्म-संपया-संपउत्ते। तं सेयं खलु ममं समणं भगवं महावीरं बंदित्ता नमंसित्ता पाडिहारिएणं पीढ-फलग जाव (-सेज्जा-संथारएणं) उवनिमंतित्तए। एवं संपेहेइ, संपेहिता उट्ठाए उठेइ, उठेत्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु भंते ! ममं पोलासपुरस्स नयरस्स बहिया पंच कुभकारावणसया। तत्थ णं तुम्भे पाडिहारियं पीढ जाव (-फलग-सज्जा-) संथारयं ओगिण्हित्ता णं विहरह / श्रमण भगवान महावीर द्वारा यों कहे जाने पर आजीविकोपासक सकडालपुत्र के मन में ऐसा विचार आया—श्रमण भगवान महावीर ही महामाहन, उत्पन्न ज्ञान, दर्शन के धारक तथा सत्कर्मसम्पत्ति-युक्त हैं / अतः मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार कर प्रातिहारिक पीठ, फलक (शय्या तथा संस्तारक) हेतु आमंत्रित करु / यों विचार कर वह उठा, श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया और बोला-भगवन् ! पोलासपुर नगर के बाहर मेरी पांच-सौ कुम्हारगीरी की कर्मशालाएं हैं / आप वहां प्रातिहारिक पीठ, (फलक, शय्या) संस्तारक ग्रहण कर विराजें। भगवान् का कुभकारापण में पदार्पण 194. तए णं समणे भगवं महाबीरे सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स एयमलैं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स पंचकुभकारावणसएसु फासुएसणिज्जं पाडिहारियं पीढफलग जाव (-सेज्जा) संथारयं ओगिहित्ता णं विहरइ / भगवान् महावीर ने आजीविकोपासक सकडालपुत्र का यह निवेदन स्वीकार किया तथा उसकी पांच सौ कुम्हारगीरी की कर्मशालाओं में प्रासुक, शुद्ध प्रातिहारिक पीठ, फलक (शय्या), संस्तारक ग्रहण कर भगवान् अवस्थित हुए। नियतिवाद पर चर्चा 195. तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए अन्नया कयाइ वायाययं कोलाल-भंडं अंतो सालाहितो बहिया नीणेइ, नीणेत्ता, आयवंसि दलयइ। 1. देखें सूत्र-संख्या 158 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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