________________ सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र] [149 उवागच्छिता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं, तवसा अप्पाणं भावेमाणे) विहरइ, तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं बंदामि जाव (नमसामि, सक्कारेमि, सम्मामि कल्लाणं, मगल, देवयं, चेइयं) पज्जुवासामि एवं संपेहेइ, संपेहिता ण्हाए जाव (कयवलिकम्मे, कयकोउयमंगल-) पायच्छित्ते सुद्ध-प्पावेसाइं जाव (मंगल्लाइं वत्थाई पवरपरिहिए) अप्पमहग्घाभरणालंकिय-सरीरे, मणुस्सवग्गुरा-परिगए साओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता, पोलासपुरं नयरं मज्झमझेणं निम्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव सहस्संबवणे उज्जाणे, जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता जाव (णच्चासण्णे णाइदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाण अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे) पज्जुवासइ / आजीविकोपासक सकडालपुत्र ने यह सुना कि भगवान महावीर पोलासपुर नगर में पधारे हैं / (सहस्राम्रवन उद्यान में यथोचित स्थान ग्रहण कर संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुएअवस्थित हैं) / उसने सोचा- मैं जाकर भगवान् की वन्दना, (नमस्कार, सत्कार एवं सम्मान करू / वे कल्याणमय, मंगलमय, देवस्वरूप तथा ज्ञानस्वरूप हैं / ) पर्युपासना करु / यों सोच कर उसने स्नान किया, (नित्य-नैमित्तिक कार्य किए, देह-सज्जा तथा दुःस्वप्न आदि दोष-निवारण हेतु चन्दन, कुकुम, दधि, अक्षत आदि द्वारा मंगल-विधान किया,) शुद्ध, सभायोग्य (मांगलिक एवं उत्तम) वस्त्र पहने / थोड़े से बहुमूल्य प्राभूषणों से देह को अलंकृत किया, अनेक लोगों को साथ लिए वह अपने घर से निकला, पोलासपुर नगर के बीच से गुजरा, सहस्राम्रवन उद्यान में, जहां भगवान महावीर विराजित थे, आया। आकर तीन बार आदक्षिणा-प्रदक्षिणा की, वन्दन-नमस्कार किया, (वन्दन-नमस्कार कर भगवान् के न अधिक निकट, न अधिक दूर, सम्मुख अवस्थित हो, नमन करते हुए, सुनने की उत्कंठा लिए विनयपूर्वक हाथ जोड़े,) पर्युपासना की। 191. तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स तोसे य महइ जाव' धम्मकहा समत्ता। तब श्रमण भगवान् महावीर ने आजीविकोपासक सकडालपुत्र को तथा विशाल परिषद् को धर्म-देशना दी। 192. सद्दालपुत्ता! इ समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासी से नूणं, सद्दालपुत्ता ! कल्लं तुमं पुवावरण्ह-काल-समयंसि जेणेव असोग-वणिया जाव विहरसि / तए णं तुम्भं एगे देवे अंतियं पाउन्भवित्था / तए णं से देवे अंतलिक्ख-पडिवन्ने एवं बयासी-हं भो ! सद्दालपुत्ता ! तं चेव सम्वं जाव पज्जुवासिस्सामि, से नूणं, सद्दालपुत्ता ! अठे समठे ? हंता ! अस्थि / नो खलु, सद्दालपुत्ता ! तेणं देवेणं गोसालं मखलि-पुत्तं पणिहाय एवं वुत्ते / / श्रमण भगवान् महावीर ने आजीविकोपासक सकडालपुत्र से कहा—सकडालपुत्र ! कल 1. देखें सूत्र-संख्या 11 2. देखें सूत्र-संख्या 185 3. देखें सूत्र-संख्या 188 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org