________________ चतुर्थ अध्ययन : सुरादेव श्रमणोपासक सुरादेव 150. उक्खेवओ' चउत्थस्स अज्झयणस्स / एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसी नाम नयरी / कोदए चेहए। जियसत्तू राया। सुरादेवे गाहावई अड्डे / छ हिरण्ण-कोडीओ जाव (निहाण-पउत्ताओ, छ वड्डि-पउत्ताओ, छ पवित्थर-पउत्ताओ।) छ वया, दस-गो-साहस्सिएणं वएणं / धन्ना भारिया / सामी समोसढे / जहा आणंदो तहेव पडिवज्जए गिहि-धम्म / जहा कामदेवो जाव' समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्म-पण्णत्ति उवसंपज्जित्ताणं विहरइ / उपक्षेप ---उपोद्घातपूर्वक चतुर्थ अध्ययन का प्रारम्भ यों है आर्य सुधर्मा ने कहा-जम्बू ! उस काल-वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे पारे के अन्त में, उस समय-जब भगवान महावीर सदेह विद्यमान थे, वाराणसी नामक नगरी थी। कोष्ठक नामक चैत्य था / वहां के राजा का नाम जितशत्रु था। वहां सुरादेव नामक गाथापति था / वह अत्यन्त समृद्ध था। छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं स्थायी पूजी के रूप में उसके खजाने में थीं, (छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार-व्यवसाय में लगी थीं, छः करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं घर के वैभव-धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद आदि साधन-सामग्री में लगी थी)। उसके छह गोकुल थे। प्रत्येक गोकुल में दस-दस हजार गायें थीं। उसकी पत्नी का नाम धन्या था।। __ भगवान् महावीर पधारे.-समवसरण हुआ / आनन्द की तरह सुरादेव ने भी श्रावक-धर्म स्वीकार किया। कामदेव की तरह वह भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति-धर्म-शिक्षा के अनुरूप उपासना-रत हुआ। देव द्वारा पुत्रों की हत्या 151. तए णं तस्स सुरादेवस्स समणोवासयस्स पुन्व-रत्तावरत्तकाल-समयंसि एगे देवे अंतियं पाउन्भवित्था / से देवे एगं महं नीलुप्पल जाव' असि गहाय सुरादेवं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो! सुरादेवा समणोवासया! अपत्थिय-पत्थिया 4 / जइ णं तुमं सोलाई जाव' न भंजेसि, तो ते 1. जइ णं भंते ! समणेणं भगक्या जाव संपत्तेणं उवासगदसाणं तच्चस्स अज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते, च उत्थस्स णं भंते ! अज्झयणस्स के अटठे पण्णत्ते ? 2. देखें सूत्र-संख्या 92 3. प्रार्य सुधर्मा से जम्बू ने पूछा-सिद्धि प्राप्त भगवान् महावीर ने उपासकदशा के तृतीय अध्ययन का यदि यह अर्थ—प्राशय प्रतिपादित किया, तो भगवन् ! उन्होंने चतुर्थ अध्ययन का क्या अर्थ बतलाया ? (कृपया कहें।) 4. देखें सूत्र-संख्या 116 5. देखें सूत्र-संख्या 107 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org