________________ 120] [उपासकदशांगसूत्र जेट्रपुत्तं साओ गिहाओ नीणेमि, नीणेता तव अग्गओ घाएमि, घाएता पंच सोल्लए करेमि, करेत्ता आदाण-भरियसि कडाहयंसि अद्दहेमि, अद्दहेत्ता तव गायं मंसेण य साणिएण य आयंचामि, जहा णं तुम अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि / ___ एवं मज्झिमयं, कणीयसं; एक्केक्के पंच सोल्लया। तहेव करेइ जहा चुलणोपियस्स, नवरं एक्केक्के पंच सोल्लया। एक दिन की बात है, आधी रात के समय श्रमणोपासक सुरादेव के समक्ष एक देव प्रकट हया / उसने नीली, तेज धार वाली तलवार निकालकर श्रमणोपासक सुरादेव से कहा-मृत्यु को चाहने वाले श्रमणोपासक सुरादेव ! यदि तुम आज शील, व्रत आदि का भंग नहीं करते हो तो मैं तुम्हारे बड़े बेटे को घर से उठा लाऊंगा। लाकर तुम्हारे सामने उसे मार डालूगा। मारकर उसके पांच मांस-खण्ड करुंगा, उबलते पानी से भरी कढ़ाही में खौलाऊंगा. उसके मांस और रक्त से तुम्हारे शरीर को सींचूगा, जिससे तुम असमय में ही जीवन से हाथ धो बैठोगे / ___ इसी प्रकार उसने मंझले और छोटे लड़के को भी मार डालने, उनको पांच-पांच मांस-खंडों में काट डालने की धमकी दी / सुरादेव के अविचल रहने पर जैसा चुलनीपिता के साथ देव ने किया था, वैसा ही उसने किया, उसके पुत्रों को मार डाला। इतना भेद रहा, वहाँ देव ने तीन-तीन मांस खंड किये थे, यहाँ देव ने पांच-पांच मांस-खंड किए। भीषण व्याधियों की धमकी 152. तए णं देवे सुरादेवं समणोवासयं चउत्थं पि एवं वयासीहं भो! सुरादेवा समणोवासया ! अपत्थिय-पत्थिया 4 ! जाव' न परिच्चयसि, तो ते अज्ज सरीरंसि जमग-समगमेव सोलस-रोगायके पक्खिवामि, तं जहा-सासे, कासे जाव (जरे, दाहे, कुच्छिसूले, भगंदरे, अरिसए, अजीरए, दिद्विसूले, मुद्धसूले, अकारिए, अच्छिवेयणा, कण्णवेयणा, कंडुए, उदरे) कोढे, जहा णं तुम अट्ट-दुहट्ट जाव (-वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ) ववरोविज्जसि। ___ तब उस देव ने श्रमणोपासक सुरादेव को चौथी बार भी ऐसा कहा मृत्यु को चाहने वाले श्रमणोपासक सुरादेव ! यदि अपने व्रतों का त्याग नहीं करोगे तो आज मैं तुम्हारे शरीर में एक ही साथ श्वास-- दमा, कास-खांसी, (ज्वर-बुखार, दाह-देह में जलन, कुक्षि-शूल-पेट में तीव्र पीड़ा, भगंदर-गुदा पर फोड़ा, अर्श-बवासीर, अजीर्ण-बदहजमी, दृष्टिशूल-नेत्र में शूल चुभने जैसी तेज पीड़ा, मूर्द्ध-शूल-मस्तक-पीड़ा, अकारक-भोजन में अरुचि या भूख न लगना, अक्षि-वेदना-अांख दुखना, कर्ण-वेदना-कान दुखना, कण्डू खुजली, उदर-रोग-जलोदर आदि पेट की बीमारी तथा) कुष्ठ-कोढ़, ये सोलह भयानक रोग उत्पन्न कर दूंगा, जिससे तुम आर्तध्यान तथा विकट दुःख से पीड़ित होकर असमय में ही जीवन से हाथ धो बैठोगे। 153. तए णं से सुरादेवे समणोवासए जाव (तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए, अतत्थे, अणुव्विग्गे, अवखुभिए, अचलिए, असंभंते, तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए) विहरइ / एवं देवो दोच्चंपि 3. देखें सूत्र-संख्या 107 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org