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________________ तृतीय अध्ययन : चुलनीपिता] [115 करता है कि कैसा बुरा कार्य उससे बन पड़ा / गुरु को प्रत्यक्ष रूप में या भाव रूप में साक्ष्य बनाकर वह अपनी भूल की प्रकट रूप में निन्दा करता है, जिसे गर्दा कहा जाता है, जो आन्तरिक खेद अनुभव करने का बहुत ही प्रेरणाप्रद रूप है। जिस विचारधारा के कारण भूल बनी, उस विचारधारा को सर्वथा उच्छिन्न कर देने हेतु उपासक संकल्पबद्ध होता है / अन्ततः वह प्रायश्चित्त के रूप में कुछ तपश्चरण स्वीकार करता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह एक ऐसा सुन्दर क्रम है, जिससे पुनः वैसी भूल यथासम्भव नहीं होती। जिन दुर्बलताओं के कारण वैसी भूल बनती है, वे दुर्बलताएं किसी न किसी रूप में दूर हो जाती हैं। प्रस्तुत में चुलनी पिता की माता ने उसे कहा है-'तुम्हारा व्रत, नियम और पोषध भग्न हो गया है।' टीकाकार ने व्रतादि के भंग होने का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है साधारणतया श्रावक अहिंसाणुव्रत में निरपराध जीव की हिंसा का त्याग करता है किन्तु पोषध में निरपराध के साथ सापराध की हिंसा का भी त्याग होता है। चुलनीपिता ने क्रोधपूर्वक उपसर्गकारी के विनाश के लिए दौड़कर भावतः स्थूलप्राणातिपातविरमण व्रत का उल्लंघन किया। यह उसके व्रतभंग का कारण हुआ / पोषध में क्रोध करने का भी परित्याग किया जाता है, किन्तु कोध करने के कारण उत्तरगुणरूप नियम का भंग हुआ / अव्यापार के त्याग का उल्लंघन करने के कारण पोषध-भंग हुआ। इस प्रकार व्रत, नियम और. पोषध भंग होने के कारण, पुनः विशुद्धि के लिए आलोचना आदि करना अनिवार्य था। 147. तए णं से चुलणोपिया समणोवासए अम्मयाए भद्दाए सत्थवाहीए 'तह ति एयम8 विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ जाव' पडिबज्जइ / श्रमणोपासक चुलनीपिता ने अपनी माता भद्रा सार्थवाही का कथन 'आप ठीक कहती हैं। यों कहकर विनयपूर्वक सुना। सुनकर उस स्थान-व्रत-भंग, नियमभंग और पोषधभंग रूप आचरण की आलोचना की, (यावत्) प्रायश्चित्त के रूप में तदनुरूप तपःक्रिया स्वीकार की। जीवन का उपासनामय अन्त 148. तए णं से चुलणीपिया समणोवासए पढम उवासगपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ, पढमं उवासग-पडिमं अहासुत्तं जहा आणंदो जाव (दोच्चं उवासग-पडिमं, एवं तच्चं, चउत्थं, पंचम, छ8, सत्तम, अट्ठमं, नवम, दशमं,) एक्कारसमं वि / तत्पश्चात् श्रमणोपासक चुलनीपिता ने आनन्द की तरह क्रमश: पहली, (दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवीं, छठी, सातवीं, आठवीं, नौवीं, दसवीं तथा) ग्यारहवीं उपासक-प्रतिमा की यथाविधि आराधना की। 149. तए णं से चुलणीपिया समणोवासए तेणं उरालेणं जहा कामदेवो जाव (बहूहि सीलव्वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहि अप्पाणं भावेत्ता, बीसं बासाई समणोवासग-परियायं 1. देखें सूत्र-संख्या 87 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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