________________ 116] [उपासकदशांगसूत्र पाउणित्ता, एक्कारस य उवासग-पडिमाओ सम्म काएणं फासित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सद्धि भत्ताई अणसणाए छेदत्ता, आलोइय-पडिक्कते, समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा) सोहम्मे करपे सोहम्मडिसगस्स महाविमाणस्स उत्तर-पुरथिमेणं अरुणप्पभे विमाणे देवत्ताए उववन्ने चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णता / महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ। निक्खेवो' // सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं तइयं अज्सयणं समत्तं / / श्रमणोपासक चुलनीपिता (अणुव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान तथा पोषधोपवास द्वारा अनेक प्रकार से प्रात्मा को भावित कर, बीस वर्ष तक श्रावकधर्म का पालन कर, ग्यारह उपासकप्रतिमाओं की भली-भांति अाराधना कर एक मास की संलेखना और एक मास का अनशन सम्पन्न कर, पालोचना, प्रतिक्रमण कर, मरण-काल आने पर समाधिपूर्वक देहत्याग कर-ज्यों उग्र तपश्चरण के फल स्वरूप) सौधर्म देवलोक में सौधर्मावतंसक महाविमान के ईशान कोण में स्थित अरुणप्रभ विमान में देव रूप में उत्पन्न हुआ / वहाँ उसकी आयु-स्थिति चार पल्योपम की बतलाई गई है। महाविदेह क्षेत्र में वह सिद्ध होगा—मोक्ष प्राप्त करेगा। / निक्षेप / / / / सातवें अंग उपासकदशा का तृतीय अध्ययन समाप्त / / 1. एवं खलु जम्बू ! समणेण जाव संपत्तेणं तच्चस्स अभयणस्स' अयमठे पण्णत्तेत्ति बेमि / 2. निगमन-आर्य सुधर्मा बोले- जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने उपासकदशा के तृतीय अध्ययन का यही प्रर्थ-भाव कहा था, जो मैंने तुम्हें बतलाया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org