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________________ 114] [उपासकदशांगसूत्र पुत्तं साओ गिहाओ नोणेइ, नीणेत्ता तव अग्गओ घाएइ, एस णं केइ पुरिसे तव उवसग्गं करेइ, एस णं तुमे विदरिसणे दिट्ठ। तं गं तुम इयाणि भग्ग-व्वए भग्ग-नियमे भग्ग-पोसहे विहरसि / तं गं तुमं पुत्ता ! एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव (पडिक्कमाहि, निदाहि, गरिहाहि, विउट्टाहि, विसोहेहि अकरणयाए, अब्भुट्टाहि अहारिहं पायच्छित्तं तवो-कम्म) पडिवज्जाहि / तब भद्रा सार्थवाही श्रमणोपासक चुलनी पिता से बोली-पुत्र ! ऐसा कोई पुरुष नहीं था, जो (तम्हारे ज्येष्ठ पत्र को घर से लाया हो, तुम्हारे पागे उसका वध किया हो, तुम्हारे मंझले पूत्र को घर से लाया हो, तुम्हारे आगे उसे मारा हो,) तुम्हारे छोटे पुत्र को घर से लाया हो, तुम्हारे आगे उसकी हत्या की हो। यह तो तुम्हारे लिए कोई देव-उपसर्ग था। इसलिए, तुमने यह भयंकर दृश्य देखा / अब तुम्हारा व्रत, नियम और पोषध भग्न हो गया है—खण्डित हो गया है। इसलिए पुत्र! तुम इस स्थान व्रत-भंग रूप आचरण की आलोचना करो, (प्रतिक्रमण करो-पुनः शुद्ध अन्तःस्थिति में लौटो, इस प्रवृत्ति की निन्दा करो, गर्दी करोपान्तरिक खेद अनुभव करो, इसे वित्रोटित करो---विच्छिन्न करो या मिटाओ, इस प्रकरणता या अकार्य का विशोधन करो—इससे जनित दोष का परिमार्जन करो, यथोचित प्रायश्चित्त के लिए अभ्युत्थित-उद्यत हो जाओ,) तदर्थ तपःकर्म स्वीकार करो। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में देव द्वारा श्रमणोपासक चुलनीपिता के तीनों पुत्रों को उसकी आंखों के सामने तलवार से काट डाले जाने तथा उबलते पानी की कढ़ाही से खौलाए जाने के सम्बन्ध में जो उल्लेख है वह कोई वास्तविक घटना नहीं थी, देव-उपसर्ग था। इसका स्पष्टीकरण कामदेव के प्रकरण में किया जा चुका है। विशेषता यह है कि अन्ततः चुलनीपिता अपने व्रतों से विचलित हो गया। व्रती या उपासक के लिए यह आवश्यक है कि वह प्रतिक्षण सावधान रहे, अपने नियमों के यथावत् पालन में जागरूक रहे / ऐसा होते हुए भी कुछ ऐसी मानवीय दुर्बलताएं हैं, उपासक की / दृढ़ता कभी-कभी टूट जाती है। गुरु, पूज्य जन आदि से उद्बोधित होकर अथवा आत्म-प्रेरित होकर उपासक सहसा सावधान होता है, जीवन में वैसा अवांछनीय प्रसंग फिर न पाए / वह अपने संकल्प को स्मरण करता है। पूर्ववत् दृढ़ता आ जाए, वह (संकल्प-व्रत) अागे फिर न टूटे, इसके लिए शास्त्रों में प्रायश्चित्त का विधान है। उपासक वहां अपने भीतर पैठ कर अपने स्वरूप, प्राचार, व्रत, स्थिति के करता है। इस सन्दर्भ में आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्हा आदि शब्दों का विशे है जो यहां भी हया है। वैसे साधारणतया ये शब्द समानार्थक जैसे हैं, परन्तु सक्षमता में जाएं तो प्रत्येक शब्द की अपनी विशेषता है / जैन परम्परा में आत्म-शोधनमूलक इस उपक्रम का अपना विशेष प्रकार है, जिसके पीछे बड़ा मनोवैज्ञानिक चिन्तन है। आलोचना करने का आशय गुरु के सम्मुख अपनी भूल निवेदित करना है / यह बहुत लाभप्रद है। इससे भीतर का मल धुल जाता है। प्रतिक्रमण शब्द का भी अपना महत्त्व है। उपासक अपने आप को सम्बोधित कर कहता हैआत्मन् ! वापस अपने आप में लौटो, बहिर्मुख हो तुम कहां चले गये थे? फिर निन्दा की बात आती है, उपासक आत्मा की साक्षी से भीतर ही भीतर अपनी भूल की निन्दा करता है। विचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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