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________________ आठवां अध्ययन : महाशतक] [185 संलेखना की आराधना में लगे हुए, अनशन स्वीकार किए हुए श्रमणोपासक के लिए सत्य, (तत्त्वरूप, तथ्य, सद्भूत) वचन भी यदि अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ, मन प्रतिकूल हों तो बोलना कल्पनीय नहीं है। देवानुप्रिय ! तुमने रेवती को सत्य किन्तु अनिष्ट वचन कहे। इसलिए तुम इस स्थान को-धर्म के प्रतिकूल आचरण की आलोचना करो, यथोचित प्रायश्चित्त स्वीकार करो। 262. तए णं से भगवं गोयमे समणस्य भगवओ महावीरस्स 'तहत्ति' एयमढविणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमिता रायगिह नयरं मझं-मज्झणं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता जेणेव महासयगस्स समणोवासयस्स गिहे, जेणेव महासयए समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ / भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर का यह कथन 'आप ठीक फरमाते हैं यों कह कर विनयपूर्वक सुना। वे वहां से चले। राजगह नगर के बीच से गुजरे, श्रमणोपासक महाशतक के घर पहुंचे, उसके पास गए। 263. तए णं से महासयए समणोवासए भगवं गोयम एज्जमाणं पासइ, पासित्ता हट्ठ जाव' हियए भगवं गोयसं वंदइ नमसइ / श्रमणोपासक महाशतक ने जब भगवान् गौतम को आते देखा तो वह हर्षित एवं प्रसन्न हुआ / उन्हें वंदन-नमस्कार किया। __ 264. तए णं से भगवं गोयमे महासययं समणोवासयं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खए भासइ, पण्णवेइ, परूवेइ नो खलु कप्पइ, देवाणुप्पिया! समणोवासगस्स अपच्छिम जाव (मारणंतिय-संलेहणा-झूसणा-झूसियस्स भत्त-पाण-पडियाइ-क्खियस्स परो संतेहि, तच्चेहि, तहिएहि, सम्भूहि, अणि?हिं, अकतेहि, अप्पिएहि, अमणुर्णाह, अमणामेहि बागरणेहि) वागरित्तए। तुमे णं देवाणुप्पिया ! रेवई गाहावइणी संतेहिं जाव' वागरिया, तं गं तुम देवाणुप्पिया ! एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव' पडिवज्जाहि।। भगवान् गौतम ने श्रमणोपासक महाशतक से कहा--देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान् महावीर ने ऐसा पाख्यात, भाषित, प्रज्ञप्त एवं प्ररूपित किया है-कहा है—(देवानुप्रिय ! अन्तिम मारणान्तिक संलेखना की आराधना में लगे हुए, अनशन स्वीकार किए हुए श्रमणोपासक के लिए सत्य, तत्त्वरूप, तथ्य, सद्भूत वचन भी यदि अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ तथा मन के प्रतिकूल हों तो उन्हें बोलना कल्पनीय नहीं है ) देवानुप्रिय ! तुम अपनी पत्नी रेवती के प्रति ऐसे वचन बोले, इसलिए तुम इस स्थान की--धर्म के प्रतिकूल आचरण की आलोचना करो प्रायश्चित्त स्वीकार करो। महाशतक द्वारा प्रायश्चित्त ___265. तए णं से महासयए समणोवासए भगवओ गोयमस्स 'तहत्ति' एयमट्ट विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ जाव' अहारिहं च पायच्छित्तं पडिवज्जइ / 1. देखें सूत्र-संख्या 12 2. देखें सूत्र-संख्या 261 3. देखें सूत्र-संख्या 84 4. देखें सूत्र-संख्या 87 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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