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________________ 186] [उपासकदशांगसूत्र तब श्रमणोपासक महाशतक ने भगवान् गौतम का कथन 'आप ठीक फरमाते हैं' कह कर विनयपूर्वक स्वीकार किया, अपनी भूल की आलोचना की, यथोचित प्रायश्चित्त किया। 266. तए णं से भगवं गोयमे महासयगस्स समणोवासयस्स अंतियाो पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता रायगिहं नयरं मझ-मज्झणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागन्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरई। तत्पश्चात् भगवान् गौतम श्रमणोपासक महाशतक के पास से रवाना हुए, राजगृह नगर के बीच से गुजरे, जहां श्रमण भगवान महावीर थे, वहां आए / भगवान् को वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए धर्माराधना में लग गए। 267. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ रायगिहाओ नयराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवय-विहारं विहरइ। तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर, किसी समय राजगृह नगर से प्रस्थान कर अन्य जनपदों में विहार कर गए। 268. तए णं से महासयए समणोवासए बहूहि सोल जाव भावेत्ता वीसं वासाइं समणोवासग-परियायं पाउणित्ता, एक्कारस उवासगपडिमाओ सम्मं कारण फासित्ता, मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता, सट्टि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता, आलोइय-पडिक्फते समाहिपत्ते कालमासे कालं फिच्चा सोहम्मे कप्पे अरुणवडिसए विमाणे देवताए उववन्ने / चत्तारि पलिओवमाइं ठिई / महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ। निक्लेवो // सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं अट्ठमं अज्मयणं समत्तं // यों श्रमणोपासक महाशतक ने अनेक विध व्रत, नियम आदि द्वारा आत्मा को भावित किया--आत्मशुद्धि की। बीस वर्ष तक श्रमणोपासक-श्रावक-धर्म का पालन किया। ग्यारह उपासक-प्रतिमाओं की भली भांति आराधना की। एक मास की संलेखना और साठ भोजन-एक मास का अनशन सम्पन्न कर अालोचना, प्रतिक्रमण कर, मरणकाल आने पर समाधिपूर्वक देह-त्याग किया। वह सौधर्म देवलोक में अरुणावतंसक विमान में देव रूप में उत्पन्न हुआ। वहां प्रायु चार पल्योपम की है / महाविदेह क्षेत्र में वह सिद्ध-मुक्त होगा। ॥निक्षेप / / / / सातवें अंग उपासकदशा का पाठवाँ अध्ययन समाप्त / / 1. देखें सूत्र-संख्या 122 2. एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव संपत्तेणं अट्रमस्स अज्झयणस्स अयम; पण्णत्तेत्ति बेमि / 3. निगमन—आर्य सुधर्मा बोले-जम्बू ! सिद्धि-प्राप्त भगवान महावीर ने पाठवें अध्ययन का यही अर्थ---- भाव कहा था, जो मैंने तुम्हें बतलाया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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