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________________ आठवां अध्ययन : महाशतक] [173 ह / "तीस परमाणुओं का एक त्रसरेणु होता है। उसे वंशी भी कहा जाता है / जाली में पड़ती हुई सूर्य की किरणों में जो छोटे-छोटे सूक्ष्म रजकण दिखाई देते हैं, उनमें से प्रत्येक की संज्ञा त्रसरेणु या वंशी है / छह त्रसरेणु की एक मरीचि होती है / छह मरीचि की एक राजिका या राई होती है। तीन राई का एक सरसों, पाठ सरसों का एक जौ, चार जौ की एक रत्ती, छह रत्ती का एक मासा होता है / मासे के पर्यायवाची हेम और धानक भी हैं / चार मासे का एक शाण होता है, धरण और टंक इसके पर्यायवाची हैं / दो शाण का एक कोल होता है / उसे क्षुद्रक, वटक एवं द्रङ्क्षण भी कहा जाता है। दो कोल का एक कर्ष होता है। पाणिमानिका, अक्ष, पिचु, पाणितल, किचित्पाणि, तिन्दुक, विडालपदक, षोडशिका, करमध्य, हंसपद, सुवर्ण. कवल ग्रह तथा उदुम्बर इसके पर्यायवाची हैं / दो कर्ष का एक अर्धपल ( आधा पल ) होता है। उसे शुक्ति या अष्टमिक भी कहा जाता है। दो शुक्ति का एक पल होता है / मुष्टि, आम्र, चतुर्थिका, प्रकुच, षोडशी तथा बिल्व भी इसके नाम हैं। दो पल की एक प्रसृति होती है, उसे प्रसृत भी कहा जाता है / दो प्रसृति की एक अंजलि होती शरावक तथा अष्टमान भी उसे कहा जाता है। दो कडव की एक मानिका होती है। उसे शराव तथा अष्टपल भी कहा जाता है / दो शराव का एक प्रस्थ होता है अर्थात् प्रस्थ में 64 तोले होते हैं। पहले 64 तोले का ही सेर माना जाता था, इसलिए प्रस्थ को सेर का पर्यायवाची माना जाता है / चार प्रस्थ का एक आढक होता है, उसको भाजन, कांस्य-पात्र तथा चौसठ पल का होने से चतुःषष्टिपल भी कहा जाता है।' इसका तात्पर्य यह हुआ कि 256 तोले या 4 सेर तौल की सामग्री जिस पात्र में समा सकती थी, उसको कांस्य या कांस्यपात्र कहा जाता था / कांस्य या कांस्यपात्र का यह एक मात्र माप नहीं था। ऐसा अनुमान है कि कांस्यपात्र भी छोटे-बड़े कई प्रकार के काम में लिए जाते थे। इस सूत्र में जिस कांस्य-पात्र की चर्चा है, उसका माप यहां वर्णित भावप्रकाश के कांस्यपात्र से बड़ा था। इसी अध्याय के २३५वें सूत्र में श्रमणोपासक 1. चरकस्य मतं वैद्यराद्यैर्यस्मान्मतं ततः / विहाय सर्वमानानि मागधं मानमुच्यते / / प्रसरेणबुधैः प्रोक्तस्त्रिशता परमाणु भिः / प्रसरेणस्तू पर्यायनाम्ना वंशी निगद्यते / / जालान्तरमतः सूर्यकरवंशी विलोक्यते / षड़वंशीभिर्मरीचि: स्यात्ताभिः षडभिश्च राजिका / / तिसृभी राजिकाभिश्च सर्षपः प्रोच्यते बुधः / यवोऽष्टसर्षपैः प्रोक्तो गुजा स्यात्तच्चतुष्टयम् / / षडभिस्तु रक्तिकाभि: स्यान्माषको हेमधानको / भाषैश्चतुभिः शाणः स्याद्धरण: स निगद्यते // टङ्गः स एव कथितस्तद्वयं कोल उच्यते / क्षद्रको वटकश्चैव द्रड क्षणः स निगद्यते / / कोलद्वयन्त कर्ष: स्यात्स प्रोक्तः पाणिमानिका / अक्षः पिचः पाणितलं किञ्चित्पाणिश्च तिन्दुकम् / / विडालपदकं चैव तथा षोडशिका मता। करमध्यो हंसपदं सुवर्ण कवलग्रहः / / उदुम्बरञ्च पर्यायः कर्षमेव निगद्यते / स्यात्कर्षाभ्यामर्द्धपलं शुक्तिरष्टमिका तथा / / शूक्तिभ्याञ्च पलं ज्ञेयं मुष्टिरान चतुर्थिका / प्रकूञ्च: षोडशी बिल्वं पलमेवात्र कीर्त्यते / / पलाभ्यां प्रसूतिज्ञेया प्रसृतञ्च निगद्यते / प्रसतिभ्यामञ्जलि: स्याकूडवोऽर्द्धशरावकः / / अष्टमानञ्च सज्ञेयः कूडवाभ्याञ्च मानिका / शरावोऽष्टपलं तद्वज्ज्ञेयमत्र विचक्षण: / / शरावाभ्यां भवेत्प्रस्थश्चतुः प्रस्थस्तथाऽऽढक: / भाजनं कांस्यपात्रंच चतुः षष्टिपलश्च सः // ----भावप्रकाश, पूर्वखंड द्वितीय भाग, मानपरिभाषाप्रकरण 2-4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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