________________ 174] [उपासकदशांगसूत्र महाशतक अपने दैनन्दिन लेन-देन के सम्बन्ध में एक मर्यादा करता है, जिसके अनुसार वह एक दिन में दो द्रोण-परिमाण कांस्यपरिमित स्वर्ण-मुद्राओं से अधिक का लेन-देन में उपयोग न करने को संकल्प-बद्ध होता है / इसे कुछ स्पष्ट रूप में समझ लें। ऊपर आढक तक के मान की चर्चा पाई है। भावप्रकाश में आगे बताया गया है कि चार ग्राढक का एक द्रोण होता है / उसको कलश, नल्वण, अर्मण, उन्मान, घट तथा राशि भी कहा जाता है। दो द्रोण का एक शूर्प होता है, उसको कुभ भी कहा जाता है तथा 64 शराव का होने से चतुःषप्टि शरावक भी कहा जाता है।' इसका आशय यह हुआ, जिस पात्र में दो द्रोण अर्थात् पाठ आढक या 32 प्रस्थ अर्थात् 64 तोले के सेर के हिसाब से 32 सेर तौल की वस्तुएं समा सकती थीं, वह शूर्प या कुभ कहा जाता था / इस सूत्र में आया कांस्य या कांस्यपात्र इसी शूर्प या कुभ का पर्यायवाची है। भावप्रकाशकार ने जिसे शूर्य या कुभ कहा है ठीक इसी अर्थ में यहाँ कांस्य शब्द प्रयुक्त है, क्योंकि दो द्रोण का शूर्प या कुभ होता है और यहां आए वर्णन के अनुसार दो द्रोण का वह कांस्य पात्र था। शाङ्गधरसंहिता में भी इसकी इसी रूप में चर्चा पाई है। पत्नियाँ: उनकी सम्पत्ति . 233. तस्स णं महासयगस्स रेवईपामोक्खाओ तेरस भारियाओ होत्या, अहीण जाव (पडिपुण्ण-पंचिंदियसरीराओ, लक्खण-वंजण-गुणोववेयाओ, माणुम्माणप्पमाणपडिपुण्ण-सुजायसव्वंगसुन्दरंगीओ, ससि-सोमाकार-कंत-पिय-दसणाओ) सुरुवाओ। महाशतक के रेवती आदि तेरह रूपवती पत्नियां थीं। (उनके शरीर की पांचों इन्द्रियां अहीन, प्रतिपूर्ण-रचना की दृष्टि से अखंडित, संपूर्ण, अपने अपने विषयों में सक्षम थीं, वह उत्तम लक्षण -सौभाग्य सूचक हाथ की रेखाएं आदि, व्यंजन-उत्कर्ष सूचक तिल, मस ग्रादि चिह्न तथा गुण--सदाचार, पातिव्रत्य आदि से युक्त थीं, अथवा लक्षणों और व्यंजनों के गुणों से युक्त थीं। दैहिक फैलाव, वजन, ऊंचाई आदि की दृष्टि से वे परिपूर्ण, श्रेष्ठ तथा सर्वांगसुन्दर थीं / उनका आकार-स्वरूप चन्द्र के समान तथा देखने में लुभावना था, ) रूप सुन्दर था। 234. तस्स णं महासयगस्स रेवईए भारियाए कोल-घरियाओ अट्ठ हिरण्ण-कोडीओ, अट्ठ वया, दस-गो-साहस्सिएणं वएणं होत्था / अवसेसाणं दुवालसण्हं भारियाणं कोल-धरिया एगमेगा हिरण्ण-कोडी, एगमेगे व वए, दस-गो-साहस्सिएणं वएणं होत्था / महाशतक की पत्नी रेवती के पास अपने पीहर से प्राप्त पाठ करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं तथा दस 1. चभिराढोण: कलशो नल्वणोऽर्मणः / उन्मानञ्च घटो राशिद्रोणपर्यायसंज्ञितः / / शूर्पाभ्याञ्च भवेद् द्रोणी वाहो गोणी च सा स्मृता / / द्रोणाभ्यां शूर्पकुम्भौ च चतुःषष्टिशरावकः / -भावप्रकाश, पूर्वखण्ड, द्वितीय भाग, मानपरिभाषा प्रकरण 15, 16 2. शाङ्गधरसंहिता 1.1.15-29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org