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________________ 38] [उपासकदशांगसूत्र सभ्य नागरिक को परित्याग करना चाहिए। अध्यात्म-उत्कर्ष के साथ-साथ उत्तम और नैतिक नागरिक जीवन की दृष्टि से भी यह बहुत ही आवश्यक है / अतिचार सम्यक्त्व के अतिचार 44. इह खलु आणंदा ! इ समणे भगवं महावीरे आणंदं समणोवासगं एवं वयासी-एवं खलु, आणंदा ! समणोवासएणं अभिगयजीवजीवेणं जाव (उवलद्धपुण्णपावेणं, आसव-संवर-निज्जर-किरियाअहिगरण-बंध-मोक्ख-कुसलेणं, असहेज्जेणं, देवासुर-णाग-सुवण्णजक्ख-रक्खस-किण्णर-किंपुरिस-गरुलगंधब्व-महोरगाइएहि देवगणेहि निग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिज्जेणं) सम्मत्तस्स पंच अइयारा पेयाला जाणियव्वा, न समायरियव्वा / तं जहा–संका, कंखा, विइगिच्छा, परपासंडपसंसा, परपासंडसंथवे। __ भगवान् महावीर ने श्रमणोपासक आनन्द से कहा-आनन्द ! जिसने जीव, अजीव आदि पदार्थों के स्वरूप को यथावत् रूप में जाना है, [पुण्य और पाप का भेद समझा है, आस्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बन्ध तथा मोक्ष को भलीभाँति समझा है, जो किसी दूसरे की सहायता का अनिच्छुक है, देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड, गन्धर्व, महोरग आदि देवताओं द्वारा निर्ग्रन्थ प्रवचन से अनतिक्रमणीय है--विचलित नहीं किया जा सकता है] उसको सम्यक्त्व के पांच प्रधान अतिचार जानने चाहिए और उनका आचरण नहीं करना चाहिए / वे अतिचार इस प्रकार हैं-शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, पर-पाषंड-प्रशंसा तथा पर-पाषंड-संस्तव / विवेचन __ व्रत स्वीकार करना उतना कठिन नहीं है, जितना दृढता से पालन करना / पालन करने में व्यक्ति को क्षण-क्षण जागरूक रहना होता है / बाधक स्थिति के उत्पन्न होने पर भी अविचल रहना होता है / लिये हुए व्रतों में स्थिरता बनी रहे, उपासक के मन में कमजोरी न आए, इसके लिए अतिचार-वर्जन के रूप में जैन साधना-पद्धति में बहुत ही सुन्दर उपाय बतलाया गया है। अतिचार का अर्थ व्रत में किसी प्रकार की दुर्बलता, स्खलना या आंशिक मलिनता पाना है। यदि अतिचार को उपासक लांघ नहीं पाता तो वह अतिचार अनाचार में बदल जाता है। अनाचार का अर्थ है, व्रत का टूट जाना / इसलिए उपासक के लिए आवश्यक है कि वह अतिचारों को यथावत् रूप में समझे तथा जागरूकता और आत्मबल के साथ उनका वर्जन करे। उपासक के लिए सर्वाधिक महत्त्व की वस्तु है सम्यक्त्व-यथार्थ तत्त्वश्रद्धान- सत्य के प्रति सही प्रास्था / यदि उपासक सम्यक्त्व को खो दे तो फिर आगे बच ही क्या पाए? अास्था में सत्य का स्थान जब असत्य ले लेगा तो सहज ही पाचरण में, जीवन में विपरीतता पल्लवित होगी। इसलिए भगवान् महावीर ने श्रमणोपासक आनन्द को सबसे पहले सम्यक्त्व के अतिचार बतलाए और उनका आचरण न करने का उपदेश दिया। सम्यक्त्व के पांच अतिचारों का संक्षेप में विवेचन इस प्रकार हैशंका-सर्वज्ञ द्वारा भाषित आत्मा, स्वर्ग, नरक, पुण्य, पाप, बन्ध, मोक्ष प्रादि तत्त्वों में सन्देह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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