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________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [37 अनर्थवण्ड-विरमण 43. तयाणंतरं च णं चउन्विहं अणट्ठादंडं पच्चक्खाइ। तं जहा- अवज्माणापरियं, पमायायरियं, हिंसप्पयाणं, पावकम्मोवएसे / तत्पश्चात् उसने चार प्रकार के अनर्थदण्ड-अपध्यानाचरित, प्रमादाचरित, हिंस्र-प्रदान तथा पापकर्मोपदेश का प्रत्याख्यान किया। विवेचन बिना किसी उद्देश्य के जो हिंसा की जाती है, उसका समावेश अनर्थदण्ड में होता है। यद्यपि हिंसा तो हिंसा ही है, पर जो लौकिक दृष्टि से आवश्यकता या प्रयोजनवश की जाती है, उसमें तथा निरर्थक की जाने वाली हिंसा में बड़ा भेद है। आवश्यकता या प्रयोजनवश हिंसा करने को जब व्यक्ति बाध्य होता है तो उसकी विवशता देखते उसे व्यावहारिक दृष्टि से क्षम्य भी माना जा सकता है पर जो प्रयोजन या मतलब के बिना हिंसा आदि का आचरण करता है, वह सर्वथा अनुचित है। इसलिए उसे अनर्थदंड कहा जाता है / वृत्तिकार आचार्य अभयदेव सूरि ने धर्म, अर्थ तथा काम रूप प्रयोजन के बिना किये जाने वाले हिंसापूर्ण कार्यों को अनर्थदंड कहा है / अनर्थदंड के अन्तर्गत लिए गए अपध्यानाचरित का अर्थ है-दुश्चिन्तन / दुश्चिन्तन भी एक प्रकार से हिंसा ही है / वह आत्मगुणों का घात करता है / दुश्चिन्तन दो प्रकार का है-पार्तध्यान तथा रौद्रध्यान / अभीप्सित वस्तु, जैसे धन-सम्पत्ति, संतति, स्वस्थता आदि प्राप्त न होने पर एवं दारिद्रय, रुग्णता, प्रियजन का विरह आदि अनिष्ट स्थितियों के होने पर मन में जो क्लेशपूर्ण विकृत चिन्तन होता है, वह प्रार्तध्यान है। क्रोधावेश, शत्रु-भाव और वैमनस्य आदि से प्रेरित होकर दूसरे को हानि पहुँचाने आदि की बात सोचते रहना रौद्रध्यान है / इन दोनों तरह से होने वाला दुश्चिन्तन अपध्यानाचरित रूप अनर्थदंड है। प्रमादाचरित-अपने धर्म, दायित्व व कर्तव्य के प्रति अजागरूकता प्रमाद है। ऐसा प्रमादी व्यक्ति अक्सर अपना समय दूसरों की निन्दा करने में, गप्प मारने में, अपने बड़प्पन की शेखी बघारते रहने में, अश्लील बातें करने में बिताता है / इनसे संबंधित मन, वचन तथा शरीर के विकार प्रमादाचरित में आते हैं। हिंस्र-प्रदान--हिंसा के कार्यों में साक्षात् सहयोग करना, जैसे चोर, डाक तथा शिकारी आदि को हथियार देना, आश्रय देना तथा दूसरी तरह से सहायता करना / ऐसा करने से हिंसा को प्रोत्साहन और सहारा मिलता है, अतः यह अनर्थदंड है। पापकर्मोपदेश औरों को पाप-कार्य में प्रवृत्त होने में प्रेरणा, उपदेश या परामर्श देना। उदाहरणार्थ, किसी शिकारी को यह बतलाना कि अमुक स्थान पर शिकार-योग्य पशु-पक्षी उसे बहुत प्राप्त होंगे, किसी व्यक्ति को दूसरों को तकलीफ देने के लिए उत्तेजित करना, पशु-पक्षियों को पीडित करने के लिए लोगों को दुष्प्रेरित करना-इन सबका पाप-कमोपदेश में समावेश है। अनर्थदंड में लिए गए ये चारों प्रकार के दुष्कार्य ऐसे हैं, जिनका प्रत्येक धर्मनिष्ठ, शिष्ट व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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