________________ 58] [उपासकदशांगसूत्र मू ल व्रत हैं / शिक्षाव्रत उनके पोषण, संवर्धन एवं विकास के लिए हैं। शिक्षा का अर्थ अभ्यास है। ये व्रत अणुव्रतों के अभ्यास या साधना में स्थिरता लाने में विशेष उपयोगी हैं। शाब्दिक भेद से इन सात [शिक्षा] व्रतों का विभाजन दो प्रकार से किया जाता रहा है। इन सातों को शिक्षावत तो कहा ही जाता है, जैसा पहले उल्लेख हुआ है, इनमें पहले तीन-अनर्थदण्डविरमण, दिग्वत, तथा उपभोग-परिभोगपरिमाण गुणव्रत और अन्तिम चार-सामायिक, देशावकाशिक, पोषधोपवास एवं अतिथिसंविभाग, शिक्षाव्रत कहे गये हैं। गुणव्रत कहे जाने के पीछे साधारणतया यही भाव है कि ये अणुव्रतों के गुणात्मक विकास में सहायक हैं अथवा साधक के चारित्रमूलक गुणों की वृद्धि करते हैं / अगले चार मुख्यतः अभ्यासपरक हैं, इसलिए उनके साथ 'शिक्षा' शब्द विशेषणात्मक दृष्टि से सहजतया संगत है। वैसे सामान्य रूप में गुणव्रत तथा शिक्षाबत दोनों ही अणुव्रतों के अभ्यास में सहायक हैं, इसलिए स्थूल रूप में सातों को जो शिक्षावत कहा जाता है, उपयुक्त ही है। सात शिक्षाव्रतों का जो क्रम औपपातिक सूत्र आदि में है, उसका यहाँ उल्लेख किया गया है / प्राचार्य उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र में क्रम कुछ भिन्न है / तत्त्वार्थसूत्र में इन व्रतों का क्रम दिग, देश, अनर्थ-दंड-विरति, सामायिक, पोषधोपवास, उपभोग-परिभोग-परिमाण तथा अतिथि-संविभाग के रूप में है। वहाँ इन्हें शिक्षाव्रत न कह कर केवल यही कहा गया है कि श्रावक इन व्रतों से भी संपन्न होता है। किन्तु क्रम में किंचित् अन्तर होने पर भी तात्पर्य में कोई भेद नहीं है / आनन्द ने श्रावक के बारह व्रत ग्रहण करने के पश्चात् जो विशेष संकल्प किया, उसके पीछे अपने द्वारा विवेक और समझपूर्वक स्वीकार किए गए धर्म-सिद्धान्तों में सुदढ एवं सस्थिर बने रहने की भावना है। अतएव वह धार्मिक दृष्टि से अन्य धर्म-संघों के व्यक्तियों से अपना सम्पर्क रखना नहीं चाहता ताकि जीवन में कोई ऐसा प्रसंग ही न आए, जिससे विचलन की आशंका हो / प्रश्न हो सकता है, जब आनन्द ने सोच-समझ कर धर्म के सिद्धान्त स्वीकार किये थे तो उसे यों शंकित होने की क्या आवश्यकता थी? साधारणतया बात ठीक लगती है, पर जरा गहराई में जाएं / मानव-मन बड़ा भावुक है। भावुकता कभी-कभी विवेक को प्रावृत कर देती है। फलतः व्यक्ति उसमें बह जाता है, जिससे उसकी सद् आस्था डगमगा सकती है / इसी से बचाव के लिए आनन्द का यह अभिग्रह है / इस सन्दर्भ में प्रयुक्त चैत्य शब्द कुछ विवादास्पद है। चैत्य शब्द अनेकार्थवाची है। सुप्रसिद्ध जैनाचार्य पूज्य श्री जयमलजी म. ने चैत्य शब्द के एक सौ बारह अर्थों की गवेषणा की। चैत्य शब्द के सन्दर्भ में भाषा-वैज्ञानिकों का ऐसा अनुमान है कि किसी मृत व्यक्ति के जलाने के स्थान पर उसकी स्मृति में एक वृक्ष लगाने की प्राचीन काल में परम्परा रही है। भारतवर्ष से बाहर भी ऐसा होता रहा है। चिति या चिता के स्थान पर लगाए जाने के कारण वह वृक्ष 'चैत्य' कहा जाने लगा हो / आगे चलकर यह परम्परा कुछ बदल गई / वृक्ष के स्थान पर स्मारक 1. दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकपोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणाऽतिथिसं विभागवतसंपन्नश्च / -तत्त्वार्थसूत्र 7. 16 2. जयध्वज, पृष्ठ 573-76 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org