________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] के रूप में मकान बनाया जाने लगा। उस मकान में किसी लौकिक देव या यक्ष आदि की प्रतिमा स्थापित की जाने लगी / यों उसने एक देव-स्थान या मन्दिर का रूप ले लिया। वह चैत्य कहा जाने लगा। ऐसा होते-होते चैत्य शब्द सामान्य मन्दिरवाची भी हो गया। __ चैत्य का एक अर्थ ज्ञान भी है। एक अर्थ यति या साधु भी है / प्राचार्य कुदकुद ने 'अष्टप्राभूत' में चैत्य शब्द का इन अर्थों में प्रयोग किया है।' अन्य-यूथिक-परिगृहीत चैत्यों को वंदन, नमस्कार न करने का, उनके साथ पालाप-संलाप न करने का जो अभिग्रह आनन्द ने स्वीकार किया, वहाँ चैत्य का अर्थ उन साधुओं से लिया जाना चाहिए, जिन्होंने जैनत्व की प्रास्था छोड़कर पर-दर्शन की आस्था स्वीकार कर ली हो और पर-दर्शन के अनुयायियों ने उन्हें परिगृहीत या स्वीकार कर लिया हो। एक अर्थ यह भी हो सकता है, दूसरे दर्शन में आस्था रखने वाले वे साधु, जो जैनत्व की आस्था में आ गए हों, पर जिन्होंने अपना पूर्व वेश नहीं छोड़ा हो, अर्थात् वेश द्वारा अन्य यूथ या संध से संबद्ध हों / ये दोनों ही श्रावक के लिए वंदनीय नहीं होते / पहले तो वस्तुतः साधुत्वशून्य हैं ही, दूसरे-गुणात्मक दृष्टि से ठीक हैं, पर व्यवहार की दृष्टि से उन्हें वंदन करना समुचित नहीं होता। इससे साधारण श्रावकों पर प्रतिकूल असर होता है, मिथ्यात्व बढ़ने की आशंका बनी रहती है। जैसा ऊपर संकेत किया गया है, अन्य मतावलम्बी साधुओं को वन्दन, नमन आदि न करने की बात मूलतः आध्यात्मिक या धार्मिक दृष्टि से है। शिष्टाचार, सद्व्यवहार आदि के रूप में वैसा करना निषिद्ध नहीं है / जीवन में व्यक्ति को सामाजिक दृष्टि से भी अनेक कार्य करने होते हैं, जिनका आधार सामाजिक मान्यता या परम्परा होता है / 59. तए णं सा सिवनंदा भारिया आणंदेणं समणोवासएणं एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा जाव चित्तमाणंदिया, पीइमणा, परम-सोमणस्सिया, हरिसवसविसप्पमाहियया करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु ‘एवं सामि !' ति आणंदस्स समणोवासगस्स एयमझें विणएण पडिसुणेइ। तए णं से आणंदे समणोवासए कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेता एवं वयासी-खिप्पामेव भो ! देवाणुप्पिया ! लहुकरणजुत्तजोइयं, समखुर-वालिहाण-समलिहियसिंगरहिं जंबूणयामयकलावजुत्तपइविसिट्ठएहि रययामयघंट-सुत्तरज्जुग-बरकंचणखचिय-नत्थपग्गहोग्गहियरहिं नीलुप्पलकयामेलएहि पवरगोणजुवाणएहि नाणामणि-कणगघंटियाजालपरिगयं, सुजायजुगजुत्त-उज्जुगपसत्थ-सुविरइयनिम्मिय, पवरलक्खणोववेयं जुत्तामेव धम्मियं जाणप्पवरं उवट्ठवेह, उवट्ठवेत्ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। तए णं ते कोडुबियपुरिसा आणंदेणं समणोवासएणं एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठा ‘एवं सामि !' त्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुर्णेति, पडिसुणेत्ता खिप्पामेव लहुकरणजुत्तजोइयं जाव धम्मियं जाणप्पवरं उबट्ठवेत्ता तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति / तए णं सा सिवणंदा भारिया ण्हाया, कयबलिकम्मा, कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ता, सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाइं वत्थाई पवरपरिहिया अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरा चेडियाचक्कवाल१. बुद्धं जं बोहंतो अप्पाणं चेदयाइं अण्णं च / पंचमहव्वयसुद्धं णाणमयं जाण चेदिहरं / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org