________________ में मथुरा में साधुओं का सम्मेलन हुआ। जिन जिन को जैसा स्मरण था, संकलित कर आगम सुव्यवस्थित किये गये। इसे माथुरी वाचना कहा जाता है / आगम-संकलन का यह दूसरा प्रयास था / इसी समय के आसपास सौराष्ट्र के अन्तर्गत बलभी में नागार्जुन सूरि के नेतृत्व में भी साधुओं का वैसा ही सम्मेलन हुआ, जिसमें आगम-संकलन का प्रयास हुआ। यह उपर्युक्त दूसरे प्रयत्न या वाचना के अन्तर्गत ही आता है / वैसे इसे वलभी की प्रथम वाचना भी कहा जाता है। तृतीय प्रयास अब तक वही कण्ठस्थ क्रम ही चलता रहा था। आगे, इसमें कुछ कठिनाई अनुभव होने लगी। लोगों की स्मृति पहले से दुर्बल हो गई, दैहिक संहनन भी वैसा नहीं रहा / अतः उतने विशाल ज्ञान को स्मृति में बनाये रखना कठिन प्रतीत होने लगा / आगम विस्मृत होने लगे। अतः पूर्वोक्त दूसरे प्रयत्न के पश्चात् भगवान् महावीर के निर्वाण के 980 या 993 वर्ष के बाद वलभी में देवधिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में पुनः श्रमणों का सम्मेलन हुअा ! सम्मेलन में उपस्थित श्रमणों के समक्ष पिछली दो वाचनाओं का सन्दर्भ विद्यमान था। उस परिपार्श्व में उन्होंने अपनी स्मृति के अनुसार आगमों मुख्य आधार के रूप में उन्होंने माथरी वाचना को रखा। विभिन्न श्रमण-संघों में प्रवृत्त पाठान्तर, वाचना-भेद आदि का समन्वय किया। इस सम्मेलन में आगमों को लिपिबद्ध किया गया, ताकि आगे उनका एक सुनिश्चित रूप सबको प्राप्त रहे / प्रयत्न के बावजूद जिन पाठों का समन्वय संभव नहीं हुआ, वहाँ वाचनान्तर का संकेत किया गया। बारहवां अंग दृष्टिवाद संकलित नहीं किया जा सका, क्योंकि वह श्रमणों को उपस्थित नहीं था। इसलिए उसका विच्छेद घोषित कर दिया गया। जैन आगमों के संकलन के प्रयास में यह तीसरी या अन्तिम वाचना थी। इसे द्वितीय वलभी वाचना भी कहा जाता है। वर्तमान में उपलब्ध जैन आगम इसी बाचना में संकलित आगमों का रूप हैं। उपलब्ध आगम जैनों की श्वेताम्बर-परम्परा द्वारा मान्य हैं। दिगम्बर-परम्परा में इनकी प्रामाणिकता स्वीकृत नहीं है। वहाँ ऐसी मान्यता है कि भगवान् महावीर के निर्वाण के 683 वर्ष पश्चात् अंग-साहित्य का विलोप हो गया / महावीर-भाषित सिद्धान्तों के सीधे शब्द-समवाय के रूप में वे किसी ग्रन्थ को स्वीकार नहीं करते / उनकी मान्यतानुसार ईसा प्रारंभिक शती में धरसेन नामक आचार्य को दृष्टिवाद अंग के पूर्वगत ग्रन्थ का कुछ अंश उपस्थित था। वे गिरनार पर्वत की चन्द्रगुफा में रहते थे। उन्होंने वहाँ दो प्रज्ञाशील मुनि पुष्पदन्त और भूतबलि को अपना ज्ञान लिपिबद्ध करा दिया। यह षट्खण्डागम के नाम से प्रसिद्ध है। दिगम्बर-परम्परा में इनका आगमवत् अादर है। दोनों मुनियों ने लिपिबद्ध षट्खण्डागम ज्येष्ठ शुक्ला पञ्चमी को संघ के समक्ष प्रस्तुत किये / उस दिन काश में आने का महत्त्वपूर्ण दिन माना गया। उसकी श्रत-पञ्चमी के नाम से प्रसिद्धि हो गई / श्रुत-पञ्चमी दिगम्बर-सम्प्रदाय का एक महत्त्वपूर्ण धार्मिक पर्व है। ऊपर जिन आगमों के सन्दर्भ में विवेचन किया गया है, श्वेताम्बर-परम्परा में उनकी संख्या के सम्बन्ध में ऐकमत्य नहीं है। उनकी 84, 45 तथा ३२-यों तीन प्रकार की संख्याएं मानी जाती हैं। श्वेताम्बर मन्दिर-मार्गी सम्प्रदाय में 84 और 45 की संख्या की भिन्न-भिन्न रूप में मान्यता है। श्वेताम्बर स्थानकवासी तथा तेरापंथी जो अमूर्तिपूजक सम्प्रदाय हैं, में 32 की संख्या स्वीकृत है, जो इस प्रकार है :--- [18] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org