________________ 11 अंग-प्राचार, सूत्रकृत्, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाक / 12 उपांग--प्रौपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, निरयावली, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णि दशा। 4 छेद-व्यवहार, बृहत्कल्प, निशीथ, दशाश्रुतस्कन्ध / 4 मूल-दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, नन्दी, अनुयोगद्वार / 1 आवश्यक / कुल 32 यों ग्यारह अंग तथा इक्कीस अंगबाह्य कुल बत्तीस होते हैं। चार अनुयोग व्याख्याक्रम, विषयगत भेद आदि की दृष्टि से आर्यरक्षित सूरि ने आगमों को चार भागों में वर्गीकृत किया, जो अनुयोग कहलाते हैं / ये इस प्रकार हैं१. चरणकरणानुयोग--इसमें आत्मविकास के मूलगुणाचार, व्रत, सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र, संयम, वैयावृत्य, ब्रह्मचर्य,तप, कषाय-निग्रह आदि तथा उत्तरगुण-पिण्डविशुद्धि, समिति, भावना, प्रतिमा, इन्द्रिय-निग्रह, प्रतिलेखन, गुप्ति तथा अभिग्रह आदि का विवेचन है / 2. धर्मकथानुयोग–इसमें दया, दान, शील, क्षमा, आर्जब, मार्दव आदि धर्म के अंगों का विवेचन __ है। इसके लिए विशेष रूप से प्राख्यानों या कथानकों का आधार लिया गया है / 3. गणितानुयोग-इसमें गणितसम्बन्धी या गणित पर प्राधृत वर्णन की मुख्यता है। 4. द्रव्यानुयोग----इसमें जीव, अजीव आदि छह द्रव्यों या नौ तत्त्वों का विस्तृत व सूक्ष्म विवेचनविश्लेषण है। पूर्वोक्त 32 आगमों का इन 4 अनुयोगों में इस प्रकार समावेश किया जा सकता है : चरणकरणानुयोग में आचारांग तथा प्रश्नव्याकरण ये दो अंगसूत्र, दशवैकालिक-यह एक मूलसूत्र, निशोथ, व्यवहार, बृहत्कल्प एवं दशाश्रुतस्कंध -ये चार छेदसूत्र तथा आवश्यक यों कुल आठ सूत्र आते हैं। धर्मकथानुयोग में ज्ञातृधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिकदशा तथा विपाक ये पांच अंगसूत्र, औपपातिक, राजप्रश्नीय, निरयावली, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका व वृष्णिदशा ये सात उपांगसूत्र एवं उत्तराध्ययन-यह एक मूलसूत्र यों कुल तेरह सूत्र आते हैं। गणितानुयोग में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति तथा सूर्यप्रज्ञप्ति-ये तीन उपांगसूत्र आते हैं। द्रव्यानुयोग में सूत्रकृत्, स्थान, समवाय तथा व्याख्याप्रज्ञप्ति-ये चार अंगसूत्र, जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना--ये दो उपांगसूत्र एवं नन्दी व अनुयोगद्वार, ये दो मूलसूत्र-यों कुल पाठ सूत्र आते हैं। [ 19] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org