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________________ 88] [उपासकदशांगसूत्र महल्लं, मुइंगाकारोवमे से खंधे, पुरवरकवाडोवमे से बच्छे, कोट्टिया-संठाण-संठिया दो वि तस्स बाहा, निसापाहाण-संठाण-संठिया दो वि तस्स अग्गहत्या, निसालोढ-संठाणसंठियाओ हत्थेसु अंगुलीओ, सिप्पि-पुडगसंठिया से नक्खा, पहाविय-पसेवओ व्व उरंसि लंबंति दो वि तस्स थणया, पोटें अयकोडओ ब्व वझे, पाणकलंदसरिसा से नाही, सिक्कगसंठाणसंठिए से नेत्ते, किण्णपुडसंठाण-संठिया दो वि तस्स बसणा, जमल-कोट्टिया-संठाण-संठिया दो वि तस्स ऊरू, अज्जुणगुट्ठ व तस्स जाणूई कुडिलकुडिलाई विगय-बीभच्छ-दसणाई, जंघाओ कक्खडीओ लोमेहि उबचियाओ, अहरीसंठाण-संठिया दो वि तस्स पाया, अहरीलोढसंठाणसंठियाओ पाएसु अंगुलीओ, सिप्पिपुडसंठिया से नखा। उस देव ने एक विशालकाय पिशाच का रूप धारण किया। उसका विस्तृत वर्णन इस प्रकार है उस पिशाच का सिर गाय को चारा देने की (औंधी की हुई) बांस की टोकरी जैसा था / बाल धान-चावल की मंजरी के तन्तुओं के समान रूखे और मोटे थे, भूरे रंग के थे, चमकीले थे। ललाट बड़े मटके के खप्पर या ठीकरे जैसा बड़ा और उभरा हुआ था। भौंहें गिलहरी की पूछ की तरह बिखरी हुई थीं, देखने में बड़ी विकृत-भद्दी और बीभत्स-घृणोत्पादक थीं। "मटकी" जैसी आँखें, सिर से बाहर निकली थीं, देखने में विकृत और बीभत्स थीं। कान टूटू हुए सूप-छाजले के समान बड़े भद्दे और खराब दिखाई देते थे। नाक मेंढ़े की नाक की तरह थी--चपटी थी। गड्ढों जैसे दोनों नथुने ऐसे थे, मानों जुड़े हुए दो चूल्हे हों / घोड़े की पूछ जैसी उसकी मूछे भूरी थीं, विकृत और बीभत्स लगती थीं। उसके होठ ऊंट के होठों की तरह लम्बे थे। दांत हल के लोहे की कुश जैसे थे। जीभ सूप के टुकड़े जैसी थी, देखने में विकृत तथा बीभत्स थी / ठुड्डी हल की नोक की तरह आगे निकली थी / कढ़ाही की ज्यों भीतर धंसे उसके गाल खड्डों जैसे लगते थे, फटे हुए, भूरे रंग के, कठोर तथा विकराल थे। उसके कन्धे मृदंग जैसे थे / वक्षस्थल—छाती नगर के फाटक के समान चौड़ी थी। दोनों भजाएं कोष्ठिका-लोहा ग्रादिधात गलाने में काम आने वाली मिदी की कोठी के समान थीं। उसकी दोनों हथेलियां मूग आदि दलने की चक्की के पाट जैसी थीं। हाथों की अंगुलियां लोढी के समान थीं। उसके नाखून सीपियों जैसे थे-तीखे और मोटे थे। दोनों स्तन नाई की उस्तरा आदि राछ डालने की चमड़े की थैली-रछानी की तरह छाती पर लटक रहे थे / पेट लोहे के कोष्ठक--- कोठे के समान गोलाकार था / नाभि कपड़ों में पॉलिश देने हेतु जुलाहों द्वारा प्रयोग में लिये जाने वाले मांड के बर्तन के समान गहरी थी। उसका नेत्र-लिंग छींके की तरह था-लटक-रहा था। दोनों अण्डकोष फैले हुए दो थैलों या बोरियों जैसे थे / उसकी दोनों जंघाएं एक जैसी दो कोठियों के समान थीं। उसके घुटने अर्जुन-तृण-विशेष या वृक्ष-विशेष के गुठे स्तम्ब-गुल्म या गांठ जैसे, टेढ़े, देखने में विकृत व बीभत्स थे। पिंडलियां कठोर थीं, बालों से भरी थीं। उसके दोनों पैर दाल आदि पीसने की शिला के समान थे / पैर की अंगुलियां लोढ़ी जैसी थीं। अंगुलियों के नाखून सीपियों के सदश थे। 95. लडहमडहजाणुए, विगय-भग्ग-भुग्ग-भुमए, अवदालिय-वयणविवर-निल्लालियग्गजोहे, सरडकयमालियाए, उंदुरमाला-परिणद्धसुकय-चिधे, नउलकयकग्णपूरे, सप्पकय वेगच्छे, अष्फोडते, अभिगजंते, भीममुक्कट्टहासे, नाणाविहपंचवण्णेहिं लोमेहि उवचिए एगं महं नीलुप्पल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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