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________________ द्वितीय अध्ययन : गाथापति कामदेव] [89 गवल-गुलिय-अयसिकुसुमप्पगासं असि खुर-धारं गहाय, जेणेव पोसहसाला, जेणेव कामदेवे समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आसु-रत्ते, रुठे, कुविए, चंडिक्किए, मिसिमिसियमाणे कामदेवं समणोवासयं एवं बयासी-हं भी कामदेवा ! समणोवासया ! अपत्थियपत्थिया ! दुरंतपंतलक्खणा! हीण-पुण्ण-चाउद्दसिया! हिरि-सिरि-धिइ-कित्ति-परिवज्जिया! धम्म-कामया ! पुण्णकामया ! सग्गकामया ! मोक्खकामया ! धम्मकंखिया ! पुण्णकंखिया ! सग्ग-कंखिया ! मोक्खकंखिया ! धम्मपिवासिया ! पुणपिवासिया ! सग्गपिवासिया ! मोक्खपिवासिया ! नो खलु कप्पइ तव देवाणुप्पिया ! जं सीलाई, वयाइं, वेरमणाई, पच्चक्खाणाई, पोसहोववासाई चालित्तए वा खोभित्तए वा, खंडित्तए वा, भंजित्तए वा, उज्झित्तए वा, परिच्चइत्तए वा / तं जइ णं तुम अज्ज सीलाई, जाव (वयाइं, वेरमणाई, पच्चक्खाणाई) पोसहोववसाइं न छड्डेसि, न भंजेसि, तो तं अहं अज्ज इमेणं नीलुप्पल-जाव (गवल-गुलिय-अयसि-कुसुमप्पगासेण, खुरधारेण) असिणा खंडाखंडि करेमि, जहा णं तुमं देवाणुप्पिया ! अट्टदुहट्टवस? अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि। . उस पिशाच के घुटने मोटे एवं अोछे थे, गाड़ी के पीछे ढीले बंधे काठ की तरह लड़खड़ा रहे थे। उसकी भौंहे विकृत-बेडौल, भग्न-खण्डित, भुग्न-कुटिल या टेढ़ी थीं / उसने अपना दरार जैसा मुह फाड़ रखा था, जीभ बाहर निकाल रक्खी थी / वह गिरगिटों की माला पहने था। चूहों की माला भी उसने धारण कर रक्खी थी, जो उसकी पहचान थी / उसके कानों में कुण्डलों के स्थान पर नेवले लटक रहे थे। उसने अपनी देह पर सांपों को दुपट्टे की तरह लपेट रक्खा था / वह भुजाओं पर अपने हाथ ठोक रहा था, गरज रहा था, भयंकर अट्टहास कर रहा था। उसका शरीर पांचों रंगों के बहुविध केशों से व्याप्त था / वह पिशाच नीले कमल, भैसे के सींग तथा अलसी के फूल जैसी गहरी नीली, तेज धार वाली तलवार लिये, जहाँ पोषधशाला थी, श्रमणोपासक कामदेव था, वहाँ आया। आकर अत्यन्त क्रुद्ध, रुष्ट, कुपित तथा विकराल होता हुआ, मिसमिसाहट करता हुआ- तेज सांस छोड़ता हुआ श्रमणोपासक कामदेव से बोला-अप्रार्थित-जिसे कोई नहीं चाहता, उस मृत्यु को चाहने वाले ! दुःखद अन्त तथा अशुभ लक्षणवाले, पुण्यचतुर्दशी जिस दिन हीन-असम्पूर्ण थी-घटिकाओं में अमावस्या आ गई थी, उस अशुभ दिन में जन्मे हुए अभागे ! लज्जा, शोभा, धृति तथा कीति से परिवजित ! धर्म, पुण्य, स्वर्ग और मोक्ष की कामना, इच्छा एवं पिपासा उत्कण्ठा रखने वाले ! देवानुप्रिय ! शील, व्रत, विरमण, प्रत्याख्यान तथा पोषधोपवास से विचलित होना, विक्षुभित होना, उन्हें खण्डित करना, भग्न करना, उज्झित करना उनका त्याग करना, परित्याग करना तुम्हें नहीं कल्पता हैइनका पालन करने में तुम कृतप्रतिज्ञ हो / पर, यदि तुम आज शील, (व्रत, विरमण, प्रत्याख्यान) एवं पोषधोपवास का त्याग नहीं करोगे, उन्हें नहीं तोड़ोगे तो मैं (नीले कमल, भैसे के सींग तथा अलसी के फूल के समान गहरी नीली, तेज धारवाली) इस तलवार से तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा, जिससे हे देवानुप्रिय ! तुम आर्तध्यान एवं विकट दुःख से पीडित होकर असमय में ही जीवन से पृथक् हो जानोगे प्राणों से हाथ धो बैठोगे। 96. तए णं से कामदेवे समणोवासए तेणं देवेणं पिसाय-रूवेणं एवं वुत्ते समाणे, अभीए, अतत्थे, अणुन्विग्गे, अक्खुभिए, अचलिए, असंभंते, तुसिणीए धम्म-ज्झाणोवगए विहरइ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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