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________________ प्रथम अध्ययन : माथापति आनन्द] [53 बैठने, शौच, लघु-शंका आदि के लिए भी स्थान निश्चित कर लेता है / आवश्यक, सीमित उपकरणों को साधु की तरह यतना या सावधानी से रखता है, जिससे हिंसा से बचा जा सके। श्रावक या उपासक के तीन मनोरथों में एक है—'कया णमहं मुडे भवित्ता पव्वइस्सामि'मेरे जीवन में वह अवसर कब आएगा, जब मैं मुडित होकर प्रव्रजित होऊंगा। इस मनोरथ या उच्च भावना के परिपोषण व विकास में यह व्रत सहायक है। श्रमण-साधना के अभ्यास का यह एक व्यावहारिक रूप है / जिस तरह एक श्रमण अपने जीवन की हर प्रवृत्ति में जागरूक और सावधान रहता है, उपासक भी इस व्रत में वैसा ही करता है। पोषधोपवास व्रत में सामान्यतः ये चार बातें मुख्य हैं [1] अशन, पान आदि खाद्य-पेय पदार्थों का त्याग, [2] शरीर की सज्जा, वेशभूषा, स्नान आदि का त्याग, [3] अब्रह्मचर्य का त्याग, [4] समग्र सावद्य सपाप कार्य-कलाप का त्याग। / वैसे पोषधोपवास चाहे जब किया जा सकता है, पर जैन परंपरा में द्वितीया, पंचमी, अष्टमी, एकादशी एवं चतुर्दशी विशिष्ट पर्व-तिथियों के रूप में स्वीकृत हैं। उनमें भी अष्टमी, चतुर्दशी और पाक्षिक विशिष्ट माना जाता है। पोषधोपवास के अतिचारों का स्पष्टीकरण निम्नांकित है अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-शय्यासंस्तार-शय्या का अर्थ पोषध करने का स्थान तथा संस्तार का अर्थ दरी, चटाई आदि सामान्य बिछौना है, जिस पर सोया जा सके / अनदेखे-भाले व लापरवाही से देखे-भाले स्थान व बिछौने का उपयोग करना। अप्रमाजित-दुष्प्रमार्जित-शय्या-संस्तार- प्रमाजित न किये हुए-बिना पूजे अथवा लापरवाही से पूजे स्थान एवं बिछौने का उपयोग करना / __ अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-उच्चार-प्रस्रवणभूमि-अनदेखे-भाले तथा लापरवाही से देखे-भाले शौच व लघुशंका के स्थानों का उपयोग करना। अप्रमाजित-दुष्प्रमाजित--उच्चार-प्रस्रवणभूमि-अनपूजे तथा लापरवाही से पूजे शौच एवं लघुशंका के स्थानों का उपयोग करना। पोषधोपवास-सम्यक्-अननुपालन-पोषधोपवास का भली-भाँति- यथाविधि पालन न करना / इन अतिचारों से उपासक को बचना चाहिए। यथासंविभाग-व्रत के अतिचार 56. तयाणंतरं च णं अहासंविभागस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियन्वा, तं जहा–सचित्त निक्खेवणया, सचित्तपेहणया, कालाइक्कमे, परववएसे, मच्छरिया। तत्पश्चात् श्रमणोपासक को यथासंविभाग-व्रत के पांच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए / वे इस प्रकार हैं-- सचित्तनिक्षेपणता, सचित्तपिधान, कालातिक्रम, परव्यपदेश तथा मत्सरिता / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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