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________________ [उपासकवांगसूत्र विवेचन यथा-संविभाग का अर्थ है, उचित रूप से अन्न, पान, वस्त्र आदि का विभाजन-मुनि अथवा चारित्र-सम्पन्न योग्य पात्र को / पात्र को इन स्वाधिकृत वस्तुओं में से एक भाग देना / इस व्रत का नाम अतिथिसंविभाग भी है, जिसका अर्थ है जिसके आने की कोई निश्चित तिथि या दिन नहीं, ऐसे साधु या संयमी अतिथि को अपनी वस्तुत्रों में से देना / .. गृहस्थ का यह बहुत ही उत्तम व आवश्यक कर्त्तव्य है / इससे उदारता को वृत्ति विकसित होती है, आत्म-गुण उजागर होते हैं / इस व्रत के जो पांच अतिचार माने गए हैं, उनके पीछे यही भावना है कि उपासक की देने की वृत्ति सदा सोत्साह बनी रहे, उसमें क्षीणता न आए। उन अतिचारों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है सचित्त-निक्षेपणता दान न देने की नीयत से अचित्त-निर्जीव-संयमी के लेने योग्य पदार्थों की सचित्त-सजीव धान्य आदि में रख देना अथवा लेने योग्य पदार्थों में सचित्त पदार्थ मिला देना / ऐसा करने से साधु उन्हें ग्रहण नहीं कर सकता। यह मुख से भिक्षा न देने की बात न कह कर भिक्षा न देने का व्यवहार से धूर्तता पूर्ण उपक्रम है। सचित्त-पिधान-दान न देने की भावना से सचित्त वस्तु से अचित्त वस्तु को ढक देना, ताकि संयमी उसे स्वीकार न कर सके। कालातिक्रम–काल या समय का अतिक्रम-उल्लंघन करना / भिक्षा का समय टाल कर भिक्षा देने की तत्परता दिखाना / समय टल जाने से आने वाला साधु या अतिथि भोजन नहीं लेता, क्योंकि तब तक उसका भोजन हो चुकता है / यह झूठा सत्कार है। ऐसा करने वाला व्यक्ति मन ही मन यह जानता है कि उसे भिक्षा या भोजन देना नहीं पड़ेगा, उसकी बात भी रह जायगी, यों कुछ लगे बिना ही सत्कार हो जायगा। परव्यपदेश न देने की नीयत से अपनी वस्तु को दूसरे की बताना। मत्सरिता-मत्सर या ईर्ष्यावश आहार आदि देना। ईर्ष्या का अर्थ यहां यह है-जैसे कोई व्यक्ति देखता है, अमुक ने ऐसा दान दिया है तो उसके मन में आता है, मैं उससे कम थोड़ा ही हूं मैं भी दू। ऐसा करने में दान की भावना नहीं है, अहंकार की भावना है। किन्हीं ने मत्सरिता का अर्थ कृपणता या कंजूसी किया है। तदनुसार दान देने में कंजूसी करना इस अतिचार में आता है। कहीं कहीं मत्सरिता का अर्थ क्रोध भी किया गया है, उनके अनुसार क्रोधपूर्वक भिक्षा या भोजन देना, यह अतिचार है। मरणान्तिक-संलेखना के अतिचार 57. तयाणंतरं च णं अपच्छिम-मारणंतिय-संलेहणा-झूसणाराहणाए पंच अइयारा जाणियब्वा न समायरियव्वा, तं जहा इहलोगासंसप्पओगे, परलोगासंसप्पओगे, जीवियासंसप्पओगे, मरणासंसप्पओगे, कामभोगासंसप्पओगे।। तदनन्तर अपश्चिम-मरणांतिक-संलेषणा–जोषणाअाराधना के पांच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए / वे इस प्रकार हैं - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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