________________ सातवां अध्ययन : सकलालपुत्र] [143 सम्पत्ति : व्यवसाय 12. तस्स णं सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स एक्का हिरण्ण-कोडी निहाण-पउत्ता, एक्का वुड्ढि-पउत्ता, एक्का पवित्थर-पउत्ता, एक्के वए, दस-गोसाहस्सिएणं वएणं / आजीविक मतानुयायी सकडालपुत्र की एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में खजाने में रखी थीं। एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार में लगी थीं तथा एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं घर के वभव-साधन-सामग्री में लगी थीं उसके एक गोकुल था, जिसमें दस हजार गायें थीं। 183. तस्स णं सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स अग्गिमित्ता नामं भारिया होत्था / आजीविकोपासक सकडालपुत्र की पत्नी का नाम अग्निमित्रा था। 184. तस्स णं सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स पोलासपुरस्स नगरस्स बहिया पंच कुंभकारावण-सया होत्था। तत्थ णं बहवे पुरिसा दिण्ण-भइ-भत्त-वेयणा कल्लाल्लि बहवे करए य वारए य पिहडए य घडए य अद्ध-घडए य कलसए य अलिजरए य जंबूलए य उट्टियाओ य करेंति / अन्ने य से बहवे पुरिसा दिण्ण-भइ-भत्त-वेयणा कल्लाकल्लि तेहिं बहिं करएहि य जाव (वारएहि य पिहडएहि य घडएहि य अद्ध-घडएहि य कलसएहि य अलिंजरएहि य जंबूलएहि य) उट्टियाहि य राय-मगंसि वित्ति कप्पेमाणा विहरति / पोलासपुर नगर के बाहर प्राजीविकोपासक सकडालपुत्र के कुम्हारगिरी के पांच सौ आपणव्यवसाय-स्थान-बर्तन बनाने की कर्मशालाएँ थीं / वहाँ भोजन तथा मजदूरी रूप वेतन पर काम करने वाले बहुत से पुरुष प्रतिदिन प्रभात होते ही, करक---करवे, वारक-गडुए, पिठर–आटा गूधने या दही जमाने के काम में आने वाली परातें या कडे, घटक-तालाब आदि से पानी लाने के काम में आने वाले घड़े, अर्द्धघटक-अधघड़े-छोटे घड़े, कलशक-कलसे, बड़े घड़े, अलिंजर-पानी रखने के बड़े मटके, जंबूलक सुराहियाँ, उष्ट्रिका-तैल, घी आदि रखने में प्रयुक्त लम्बी गर्दन और बड़े पेट वाले बर्तन-कृपे बनाने के लग जाते थे। भोजन व मजदूरी पर काम करने वाले दूसरे बहुत से पुरुष सुबह होते ही बहुत से करवे (गडुए, परातें या कूडे, घड़े, अधघड़े, कलसे, बड़े मटके, सुराहियाँ) तथा कूपों के साथ सड़क पर अवस्थित हो, उनकी बिक्री में लग जाते थे। विवेचन प्रस्तुत सूत्र के सकडालपुत्र की कर्मशालाएँ नगर से बाहर होने का जो उल्लेख है, उससे यह प्रकट होता है कि कुम्हारों की कर्मशालाएँ व अलाव नगरों से बाहर होते थे, जिससे अलावों से उठने वाले धुए के कारण वायु-दूषण न हो, नगरवासियों को असुविधा न हो। फिर सकडालपुत्र के तो पांच सौ कर्मशालाएँ थीं, बर्तन पकाने में बहुत धुआ उठता था, इसलिए निर्माण का सारा कार्य नगर से बाहर होता था / बिक्री का कार्य सड़कों व चौराहों पर किया जाता था। आज भी प्रायः ऐसा ही है। कुम्हारों के घर शहरों तथा गाँवों के एक किनारे होते हैं, जहाँ वे अपने बर्तन बनाते हैं, पकाते हैं। बर्तन बेचने का काम आज भी सड़कों और चौराहों पर देखा जाता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org