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________________ 144] [उपासकांगसूत्र देव द्वारा सूचना . 185. तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए अन्नया कयाइ पुन्वावरण्ह-काल-समयंसि जेणेव असोग-वणिया, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गोसालस्स मंखलि-पुत्तस्स अंतियं धम्मपणत्ति उवसंपज्जित्ताणं विहरइ / एक दिन आजीविकोपासक सकडालपुत्र दोपहर के समय अशोकवाटिका में गया, मंखलिपुत्र गोशालक के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति-धर्म-शिक्षा के अनुरूप वहां उपासनारत हया। 186. तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स एगे देवे अंतियं पाउब्भवित्था / आजीविकोपासक सकडालपुत्र के समक्ष एक देव प्रकट हुआ। 187. तए णं से देवे अंतलिक्ख-पडिवन्ने सखिखिणियाइं जाव (पंचवण्णाई वत्थाई पवर) परिहिए सद्दालपुतं आजीविओवासयं एवं वयासी-एहिइ णं देवाणुप्पिया! कल्लं इहं महामाहणे, उप्पन्नणाण-दसणधरे, तीय-पडुप्पन्न-मणागय-जाणए, अरहा, जिणे, केवली, सवण्णू, सव्वदरिसी, तेलोक्क-बहिय-महिय-पूइए, सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स अच्चणिज्जे, वंदणिज्जे नमंसणिज्जे जाव (सक्कारणिज्जे, सम्माणणिज्जे कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेइयं) पज्जुवासणिज्जे, तच्च-कम्म-संपयासंपउत्ते / तं गं तुमं वंदेज्जाहि, जाव (णमंसेज्जाहि, सक्कारेज्जाहि, सम्भाणेज्जाहि, कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेइयं) पन्जुवासेज्जाहि, पाडिहारिएणं पीढ-फलग-सिज्जा-संथारएणं उवनिमंतेज्जाहि / दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयइ, वइत्ता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए। छोटी-छोटी घंटियों से युक्त पांच वर्ण के उत्तम वस्त्र पहने हुए आकाश में अवस्थित उस देव ने आजीविकोपासक सकडालपुत्र से कहा-देवानुप्रिय ! कल प्रातःकाल यहां महामाहन-महान् अहिंसक, अप्रतिहत ज्ञान, दर्शन के धारक, अतीत, वर्तमान एवं भविष्य--तीनों काल के ज्ञाता, अर्हत्-परम पूज्य, परम समर्थ, जिन–राग-द्वेष-विजेता, केवली-परिपूर्ण, शुद्ध एवं अनन्त ज्ञान आदि से युक्त, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, तीनों लोक अत्यन्त हर्षपूर्वक जिनके दर्शन की उत्सुकता लिए रहते हैं, जिनकी सेवा एवं उपासना की वांछा लिए रहते हैं, देव, मनुष्य तथा असुर सभी द्वारा अर्चनीयअर्चायोग्य-पूजायोग्य, वन्दनीय-स्तवनयोग्य, नमस्करणीय, (सत्करणीय-सत्कार या आदर करने योग्य, सम्माननीय-सम्मान करने योग्य, कल्याणमय, मंगलमय, इष्ट देव स्वरूप अथवा दिव्य तेज तथा शक्तियुक्त, ज्ञानस्वरूप) पर्युपासनीय-उपासना करने योग्य, तथ्य कर्म-सम्पदा-संप्रयुक्त-- सत्कर्म रूप-सम्पत्ति से युक्त भगवान् पधारेंगे / इसलिए तुम उन्हें वन्दन करना (नमस्कार, सत्कार तथा सम्मान करना / वे कल्याणमय, मंगलमय, देवस्वरूप तथा ज्ञानस्वरूप हैं। उनकी पर्युपासना करना), प्रातिहारिक-ऐसी वस्तुएं जिन्हें श्रमण उपयोग में लेकर वापस कर देते हैं, पीठ-पाट, फलक-बाजोट, शय्या-ठहरने का स्थान, संस्तारक-बिछाने के लिए घास आदि हेतु उन्हें आमंत्रित करना / यों दूसरी बार व तीसरी बार कह कर जिस दिशा से प्रकट हुआ था, वह देव उसी दिशा की ओर लौट गया। विवेचन . प्रस्तुत सूत्र में आए 'महामाहण' शब्द की व्याख्या करते हुए प्राचार्य अभयदेव सूरि ने वृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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