________________ सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र] [145 में लिखा है-जो व्यक्ति यों निश्चय करता है, मैं किसी को नहीं मारू, अर्थात् जो मन, वचन एवं काय द्वारा सूक्ष्म तथा स्थूल समस्त जीवों की हिंसा से निवृत्त हो जाता है तथा किसी की हिंसा मत करो यों दूसरों को उपदेश करता है, वह माहन कहा जाता है / ऐसा पुरुष महान् होता है, इसलिए वह महामाहन है, अर्थात् महान् अहिंसक है / अन्य आगमों में भी जहां महामाहण शब्द आया है, इसी रूप में व्याख्या की गई है। इसकी व्याख्या का एक रूप और भी है / प्राकृत में 'ब्राह्मण' के लिए बम्हण तथा बम्भण के साथ-साथ माहण शब्द भी है। इसके अनुसार महामाहण का अर्थ महान् ब्राह्मण होता है। ब्राह्मण शब्द भारतीय साहित्य में गुण-निष्पन्नता की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व लिए हुए है। ब्राह्मण में एक ऐसे व्यक्तित्व की कल्पना है, जो पवित्रता, सात्विकता, सदाचार, तितिक्षा, तप आदि सद्गुणों के समवाय का प्रतीक हो / शाब्दिक दृष्टि से इसका अर्थ ज्ञानी है / व्याकरण में कृदन्त के प्रकरण में अण् प्रत्यय के योग से इसकी सिद्धि होती है / ' उसके अनुसार इसकी व्युत्पत्ति--जो ब्रह्म-वेद या शुद्ध चैतन्य को जानता है अथवा उसका अध्ययन करता है, वह ब्राह्मण है / गुणात्मक दृष्टि से वेद, जो विद् धातु से बना है, उत्कृष्ट ज्ञान का प्रतीक है / यों ब्राह्मण एक उच्च ज्ञानी और चरित्रनिष्ठ व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत हुआ है। जन्मगत जातीय व्यवस्था को एक बार हम छोड़ देते हैं, वह तो एक सामाजिक क्रम था। वस्तुतः इस उच्च और प्रशस्त अर्थ में 'ब्राह्मण' शब्द को केवल वैदिक वाङमय में ही नहीं, जैन और बौद्ध वाङमय में भी स्वीकार किया गया है। उत्तराध्ययन सूत्र का एक प्रसंग है---- ब्राह्मण वंश में उत्पन्न जयघोष मुनि एक बार अपने जनपद-विहार के बीच वाराणसी आए। नगर के बाहर मनोरम नामक उद्यान में रुके। उस समय विजयघोष नामक एक वेद कर रहा था। जयघोष मुनि एक मास की तपस्या के पारणे हेतु भिक्षा के लिए विजयघोष के यहां पहुंचे / विजयघोष ने कहा यहां बना भोजन तो ब्राह्मण को देने के लिए है / इस पर जयघोष मुनि ने उससे कहा--विजयघोष ! तुम ब्राह्मणत्व का शुद्ध स्वरूप नहीं जानते / जरा सुनो, मैं बतलाता हूं, ब्राह्मण कौन होता है जो अपने स्वजन, कुटम्बी जन आदि में आसक्त नहीं होता, प्रवजित होने में अधिक सोचविचार नहीं करता तथा जो आर्य-उत्तम धर्ममय वचनों में रमण करता है, हम उसी को ब्राह्मण कहते हैं। जिस प्रकार अग्नि में तपाया हुआ सोना शुद्ध एवं निर्मल होता है, उसी प्रकार जो राग, द्वेष तथा भय आदि से रहित है, हमारी दृष्टि में वही ब्राह्मण है। जो इन्द्रिय-विजेता है, तपश्चरण में संलग्न है, फलतः कृश हो गया है, उग्र साधना के कारण जिसके शरीर में रक्त और मांस थोड़ा रह गया है, जो उत्तम व्रतों द्वारा निर्वाण प्राप्त करने पर आरूढ है, वास्तव में वही ब्राह्मण है। जो त्रस-चलने फिरने वाले, स्थावर--एक जगह स्थित रहने वाले प्राणियों को सूक्ष्मता से जानकर तीन योग-मन, वचन एवं काया द्वारा उनकी हिंसा नहीं करता, वही ब्राह्मण है। 1. कर्मण्यण / पाणिनीय अष्टाध्यायी।३।२।१। 2. ब्रह्म-वेदं, शुद्धं चैतन्यं वा वेत्ति अधोते वा इति ब्राह्मण: / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org