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________________ उपासकदशांगसूत्र प्रथम अध्ययन सार-संक्षेप घटना तब की है, जब भगवान् महावीर सदेह विद्यमान थे, अपनी धर्म-देशना से जन-मानस में अध्यात्म का संचार कर रहे थे / उत्तर बिहार के एक भाग में, जहां लिच्छवियों का गणराज्य था, वाणिज्यग्राम नामक नगर था / वह लिच्छवियों की राजधानी वैशाली के पास ही था। बनियागाँव नामक आज भी एक गाँव उस भूमि में है / सम्भवतः वाणिज्यग्राम का ही वह अवशेष हो। वाणिज्यग्राम में आनन्द नामक एक सद्गृहस्थ निवास करता था। वह बहुत सम्पन्न, समृद्ध और वैभवशाली था। ऐसे जनों के लिए जैन आगम-साहित्य में गाथापति शब्द का प्रयोग हुआ है। करोड़ों सुवर्ण-मुद्राओं में सम्पत्ति, धन, धान्य, भूमि, गोधन इत्यादि की जो प्रचुरता आनन्द के यहाँ थी, उसके आधार पर आज के मूल्यांकन में वह अरबपति की स्थिति में पहुँचता था। कृषि उसका मुख्य व्यवसाय था / उसके यहाँ दस-दस हजार गायों के चार गोकुल थे। गाथापति आनन्द समृद्धिशाली होने के साथ-साथ समाज में बहुत प्रतिष्ठित था, सभी वर्ग के लोगों द्वारा सम्मानित था। बहुत बुद्धिमान् था, व्यवहार-कुशल था, मिलनसार था, इसलिए सभी लोग अपने कार्यों में उससे परामर्श लेते थे। सभी का उसमें अत्यधिक विश्वास था, इसलिए अपनी गोपनीय बात भी उसके सामने प्रकट करने में किसी को संकोच नहीं होता था / यों वह सुख, समृद्धि, सम्पन्नता और प्रतिष्ठा का जीवन जी रहा था। उसकी धर्मपत्नी का नाम शिवनन्दा था। वह रूपवती, गुणवती एवं पति-परायण थी / अपने पति के प्रति उसमें असीम अनुराग, श्रद्धा और समर्पण था। आनन्द के पारिवारिक जन भी सम्पन्न और सुखी थे / सब आनन्द को आदर और सम्मान देते थे। आनन्द के जीवन में एक नया मोड़ पाया / संयोगवश श्रमण भगवान महावीर अपने पादविहार के बीच वाणिज्यग्राम पधारे। वहाँ का राजा जितशत्रु अपने सामन्तों, अधिकारियों और पारिवारिकों के साथ भगवान के दर्शन के लिए गया / अन्यान्य सम्भ्रान्त नागरिक और धर्मानुरागी जन भी पहुँचे / आनन्द को भी विदित हुआ। उसके मन में भी भगवान् के दर्शन की उत्सुकता जागी। वह कोल्लाक सन्निवेश-स्थित दूतीपलाश चैत्य में पहुंचा, जहाँ भगवान् विराजित थे। कोल्लाक सन्निवेश वाणिज्यग्राम का उपनगर था। अानन्द ने भक्तिपूर्वक भगवान् को वन्दननमन किया। भगवान् ने धर्म-देशना दी। जीव, अजीव आदि तत्वों का बोध प्रदान किया, अनगारश्रमण-धर्म तथा अगार-गृहि-धर्म या श्रावक-धर्म की व्याख्या की। आनन्द प्रभावित हुआ / उसने भगवान् से पाँच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रत-यों श्रावक के बारह व्रत स्वीकार किए / अब तक जीवन हिंसा, भोग एवं परिग्रह आदि की दृष्टि से अमर्यादित था, उसने उसे मर्यादित एवं सीमित बनाया / असीम लालसा और तृष्णा को नियमित, नियन्त्रित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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