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________________ [उपासकदशांगसूत्र किया / फलतः उसका खान-पान, रहन-सहन, वस्त्र, भोगोपभोग सभी पहले की अपेक्षा बहुत सीमित, सादे हो गए। आनन्द एक विवेकशील और अध्यवसायी पुरुष था / वैसे सादे, सरल और संयमोन्मुख जीवन में वह सहज भाव से रम गया। अानन्द ने सोचा, मैंने जीवन में जो उद्बोध प्राप्त किया है, अपने प्राचार को तदनुरूप ढाला है, अच्छा हो, मेरी सहमिणी शिवनन्दा भी वैसा करे। उसने घर आकर अपनी पत्नी से कहादेवानुप्रिये ! तुम भी भगवान् के दर्शन करो, वन्दन करो, बहुत अच्छा हो, गृहि-धर्म स्वीकार करो। आनन्द व्यक्ति की स्वतन्त्रता का मूल्य समझता था, इसलिए उसने अपनी पत्नी पर कोई . दबाव नहीं डाला, अनुरोधमात्र किया। शिवनन्दा को अपने पति का अनुरोध अच्छा लगा। वह भगवान् महावीर की सेवा में उपस्थित हुई, धर्म सुना। उसने भी बड़ी श्रद्धा और उत्साह के साथ श्रावक-व्रत स्वीकार किए / भगवान् महावीर कुछ समय बाद वहाँ से विहार कर गए। . आनन्द का जीवन अब और भी सुखी था / वह धर्माराधनापूर्वक अपने कार्य में लगा रहा / चौदह वर्ष व्यतीत हो गए / एक बार की बात है, आनन्द सोया था, रात के अन्तिम पहर में उसकी नींद टूटी / धर्म-चिन्तन करते हुए वह सोचने लगा जिस सामाजिक स्थिति में मैं हूँ, अनेक विशिष्ट जनों से सम्बन्धित होने के कारण धर्माराधना में यथेष्ट समय दे नहीं पाता / अच्छा हो, अब मैं सामाजिक और लौकिक दायित्वों से मुक्ति ले लू और अपना जीवन धर्म की आराधना में अधिक से अधिक लगाऊं / उसका विचार निश्चय में बदल गया / दूसरे दिन उसने एक भोज आयोजित किया। आरिवारिक जनों को ग्रामन्त्रित किया. भोजन कराया. सत्कार किया। अपना निश्चय सबके सामने प्रकट किया। अपने बड़े पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंपा, सामाजिक दायित्व एवं सम्बन्धों को भली भाँति निभाने की शिक्षा दी। उसने विशेष रूप से उस समय उपस्थित जनों से कहा कि अब वे उसे गृहस्थ-सम्बन्धी किसी भी काम में कुछ भी न पूछे / यों अानन्द ने सहर्ष कौटुम्बिक और सामाजिक जीवन से अपने को पृथक् कर लिया / वह साधु जैसा जीवन बिताने को उद्यत हो गया। आनन्द कोल्लाक सन्निवेश में स्थित पोषधशाला में धर्मोपासना करने लगा / उसने क्रमश: श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं की उत्तम एवं पवित्र भावपूर्वक आराधना की। उग्र तपोमय जीवन व्यतीत करने से उसका शरीर सूख गया, यहाँ तक कि शरीर की नाड़ियाँ दिखाई देने लगीं। एक बार की बात है, रात्रि के अन्तिम पहर में धर्म-चिन्तन करते हुए आनन्द के मन में विचार आया--यद्यपि अब भी मुझ में आत्म-बल, पराक्रम, श्रद्धा और संवेग की कोई कमी नहीं, पर शारीरिक दृष्टि से मैं कृश एवं निर्बल हो गया हूँ। मेरे लिए श्रेयस्कर है, मैं अभी भगवान महावीर विद्यमानता में अन्तिम मारणान्तिक संलेखना स्वीकार कर लें। जीवन भर के लिए अन्न-जल का त्याग कर दूं, मृत्यु की कामना न करते हुए शान्त चित्त से अपना अन्तिम समय व्यतीत करू / ___आनन्द एक दृढचेता पुरुष था। जो भी सोचता, उसमें विवेक होता, आत्मा की पुकार होती। फिर उसे कार्य-रूप में परिणत करने में वह विलम्ब नहीं करता / उसने जैसा सोचा, तदनुसार सबेरा होते ही आमरण अनशन स्वीकार कर लिया। ऐहिक जीवन की सब प्रकार की इच्छाओं और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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