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________________ प्रथम अध्ययन गाथापति प्रानन्द जम्मू की जिज्ञासा : सुधर्मा का उत्तर 1. तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था / वण्णओ। पुण्णभद्दे चेइए / वण्णओ। - उस काल--वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे आरे के अन्त में, उस समय--जब आर्य सुधर्मा विद्यमान थे, चम्पा नामक नगरी थी, पूर्णभद्र नामक चैत्य था। दोनों का वर्णन औपपातिकसूत्र से जान लेना चाहिए। विवेचन ... यहाँ काल और समय—ये दो शब्द आये हैं। साधारणतया ये पर्यायवाची हैं। जैन पारिभाषिक दृष्टि से इनमें अन्तर भी है। काल वर्तना-लक्षण सामान्य समय का वाचक है और समय काल के सूक्ष्मतम-सबसे छोटे भाग का सूचक है / पर, यहाँ इन दोनों का इस भेद-मूलक अर्थ के साथ प्रयोग नहीं हुआ है / जैन आगमों की वर्णन-शैली की यह विशेषता है, वहाँ एक ही बात प्रायः अनेक पर्यायवाची, समानार्थक या मिलते-जुलते अर्थ वाले शब्दों द्वारा कही जाती है। भाव को स्पष्ट रूप में प्रकट करने में इससे सहायता मिलती है / पाठकों के सामने किसी घटना, वृत्त या स्थिति का एक बहुत साफ शब्द-चित्र उपस्थित हो जाता है। यहाँ काल का अभिप्राय वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे पारे के अन्त से है तथा समय उस युग या काल का सूचक है, जब आर्य सुधर्मा विद्यमान थे। यहाँ चम्पा नगरी तथा पूर्णभद्र चैत्य का उल्लेख हुया है। दोनों के आगे 'वग्णयो' शब्द आया है। जैन आगमों में नगर, गांव, उद्यान आदि सामान्य विषयों के वर्णन का एक स्वीकृत रूप है / उदाहरणार्थ, नगरी के वर्णन का जो सामान्य क्रम है, वह सभी नगरियों के लिए काम में आ जाता है / औरों के साथ भी ऐसा ही है। लिखे जाने से पूर्व जैन आगम मौखिक परम्परा से याद रखे जाते थे। याद रखने में सुविधा की दृष्टि से संभवतः यह शैली अपनाई गई हो / वैसे नगर, उद्यान आदि साधारणतया लगभग सदृश होते ही हैं। 2. तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्ज-सुहम्मे समोसरिए, जाव जम्बू समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्ज-सहम्मे नाम थेरे जाति-संपण्णे, कल-संपण्णे, बल-संपण्णे, रूव-संपण्णे, विणय-संपण्णे, नाण-संपण्णे, दंसण-संपण्णे, चरित्त-संपण्णे, लज्जा-संपण्णे, लाघव-संपण्णे, ओयंसी, तेयंसी, वच्चंसी, जसंसी, जिय-कोहे, जिय-माणे, जिय-माए, जिय-लोहे, जिय-णिद्दे, जिइंदिए, जियपरीसहे, जीवियास-मरण-भय-विप्पमुक्के, तव-प्पहाणे, गुण-प्पहाणे, करण-प्पहाणे, चरण-प्पहाणे, निग्गह-प्पहाणे, निच्छय-प्पहाणे, अज्जव-प्पहाणे, मद्दव-प्पहाणे, लाघव-प्पहाणे, खंति-प्पहाणे, गुत्तिप्पहाणे, मुत्ति-प्पहाणे, विज्जा-प्पहाणे, मंत-प्पहाणे, बंभ-प्पहाणे, वेय-प्पहाणे, नय-प्पहाणे, नियमप्पहाणे, सच्च-प्पहाणे, सोय-प्पहाणे, नाण-प्पहाणे, दंसण-प्पहाणे, चरित्त-प्पहाणे, ओराले, घोरे, घोर-गुणे, घोर-तवस्सी, घोर-बंभचेरवासी, उच्छूढ-सरीरे संखित्त-विउल-तेउ-लेस्से, चउद्दस-पुन्वी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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