________________ 122] [उपासकदशांगसूत्र तेणेव उबागच्छइ / उवागच्छित्ता एवं वयासी-किण्णं देवाणुप्पिया! तुहि महया महया सद्देणं कोलाहले कए ? सुरादेव की पत्नी धन्या ने जब यह कोलाहल सुना तो जहाँ सुरादेव था, वह वहाँ आई। प्राकर पति से बोली-देवानुप्रिय ! आप जोर-जोर से क्यों चिल्लाए ? जीवन का उपसंहार 156. तए णं से सुरादेवे समणोवासए धन्न भारियं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए ! के वि पुरिसे, तहेव कहेइ जहा चुलणीपिया / धन्ना वि पडिभणइ, जाव' कणीयसं / नो खलु देवाणुप्पिया ! तुम्भं के वि पुरिसे सरीरंसि जमग-समर्ग सोलस रोगायंके पक्षिवइ, एस णं के वि पुरिसे तुम्भं उवसम्गं करेइ / सेसं जहा चुलणीपियस्स तहा भणइ / एवं सेसं जहा चुलणोपियस्स निरवसेसं जाव' सोहम्मे कप्पे अरुणकते विमाणे उववन्ने / चत्तारि पलिओवमाई ठिई / महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ / निक्खेवो // सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणां चउत्थं अज्झयणं समत्तं // श्रमणोपासक सुरादेव ने अपनी पत्नी धन्या से सारी घटना उसी प्रकार कही, जैसे चुलनीपिता ने कही थी। धन्या बोली देवानुप्रिय ! किसी ने तुम्हारे बड़े, मंझले और छोटे लड़के को नहीं मारा / न कोई पुरुष तुम्हारे शरीर में एक ही साथ सोलह भयानक रोग ही उत्पन्न कर रहा है। यह तो तुम्हारे लिए किसी ने उपसर्ग किया है / उसने और सब वैसा ही कहा, जैसा चुलनीपिता को कहा गया था। __ आगे की सारी घटना चुलनीपिता की ही तरह है / अन्त में सुरादेव देह-त्याग कर सौधर्मकल्प में अरुणकान्त विमान में उत्पन्न हुआ / उसकी आयु-स्थिति चार पल्योपम की बतलाई गई है। महाविदेह-क्षेत्र में वह सिद्ध होगा--मोक्ष प्राप्त करेगा। ॥निक्षेप / / / सातवें अंग उपासकदशा का चतुर्थ अध्ययन समाप्त / / 1. देखें सूत्र-संख्या 154 / 2. देखें सूत्र-संख्या 149 / 3. एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव संपत्तेणं चउत्थस्स अभयणस्स प्रयमठे पण्णत्तेत्ति बेमि / 4. निगमन-प्रार्य सुधर्मा बोले-जम्वू ! श्रमण भगवान महावीर ने उपासकदशा के चौथे अध्ययन का यही अर्थ-भाव कहा था, जो मैंने तुम्हें बतलाया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org