________________ 40] [उपासकदशांगसूत्र पर-पाषंड-संस्तव-संस्तव का अर्थ घनिष्ठ सम्पर्क या निकटतापूर्ण परिचय है। परमतावम्बी पाषंडियों के साथ धार्मिक दृष्टि से वैसा परिचय अथवा सम्पर्क उपासक के लिए उपादेय नहीं है / इससे उसकी आस्था में विचलन पैदा होने की आशंका रहती है। अहिंसा-व्रत अतिचार 45. तयाणंतरं च णं थूलगस्स पाणाइवायवेरमणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा पेयाला जाणियव्वा, न समायरियव्वा / तं जहाँ-बंधे, बहे, छवि-च्छेए, अइभारे, भत्त-पाण-वोच्छए। इसके बाद श्रमणोपासक को स्थूल-प्राणातिपातविरमण व्रत के पांच प्रमुख अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए / वे इस प्रकार हैं बन्ध, वध, छविच्छेद, अतिभार, भक्त-पान-व्यवच्छेद / विवेचन बन्ध- इसका अर्थ बांधना है / पशु आदि को इस प्रकार बांधना, जिससे उनको कष्ट हो, बन्ध में आता है / व्याख्याकारों ने दास आदि को बांधने की भी चर्चा की है। उन्हें भी इस प्रकार बांधना, जिससे उन्हें कष्ट हो, इस अतिचार में शामिल है। दास आदि को बांधने का उल्लेख भारत के उस समय की ओर संकेत करता है, जब दास और दासी पशु तथा अन्यान्य अधिकृत सामग्री की तरह खरीदे-बेचे जाते थे / स्वामी का उन पर पूर्ण अधिकार होता था। पशुओं की तरह वे जीवन भर के लिए उनकी सेवा करने को बाध्य होते थे। शास्त्रों में बन्ध दो प्रकार के बतलाए गए हैं-एक अर्थ-बन्ध तथा दूसरा अनर्थ-बन्ध / किसी प्रयोजन या हेतु से बांधना अर्थ-बन्ध में आता है, जैसे किसी रोग की चिकित्सा के लिए बांधना पड़े या किसी आपत्ति से बचाने के लिए बांधना पड़े। प्रयोजन या कारण के बिना बांधना अनर्थ-बन्ध है, जो सर्वथा हिंसा है / यह अनर्थ-दंड-विरमण नामक आठवें व्रत के अन्तर्गत अनर्थ-दंड में जाता है। प्रयोजनवश किए जाने वाले बन्ध के साथ क्रोध, क्रूरता, द्वेष जैसे कलुषित भाव नहीं होने चाहिए। यदि होते हैं तो वह अतिचार है। व्याख्याकारों ने अर्थ-बन्ध को सापेक्ष और निरपेक्ष-दो भेदों में बांटा है। सापेक्षबन्ध वह है, जिससे छूटा जा सके, उदाहरणार्थ-कहीं आग लग जाय, वहाँ पशु बंधा हो, वह यदि हलके रूप में बंधा होगा तो वहाँ से छट कर बाहर जा सकेगा / ऐसा बन्ध अतिचार में नहीं आता। पर वह बन्ध, जिससे भयजनक स्थिति उत्पन्न होने पर प्रयत्न करने पर भी छूटा न जा सके, निरपेक्ष बन्ध है / वह अतिचार में आता है / क्योंकि छूट न पाने पर बंधे हुए प्राणी को घोर कष्ट होता है, उसका मरण भी हो सकता है। वध- साधारणतया वध का अर्थ किसी को जान से मारना है। पर यहाँ वध इस अर्थ में प्रयुक्त नहीं है / क्योंकि किसी को जान से मारने पर तो अहिंसा व्रत सर्वथा खंडित ही हो जाता है। वह तो अनाचार है / यहाँ वध घातक प्रहार के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, ऐसा प्रहार जिससे प्रहृत व्यक्ति के अंग, उपांग को हानि पहुँचे / छविच्छेद-~छवि का अर्थ सुन्दरता है। इसका एक अर्थ अंग भी किया जाता है / छविच्छेद का तात्पर्य किसी की सुन्दरता, शोभा मिटा देने अर्थात् अंग-भंग कर देने से है / किसी का कोई अंग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org