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________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [77 अंशों की सुसंगत, अंगों के परस्पर समानुपाती, सन्तुलित और समन्वित रचनामय शरीर के धारक थे, जो वज्र-ऋषभ-नाराच-संहनन-सुदृढ अस्थि-बन्धयुक्त विशिष्ट-देह-रचनायुक्त थे, कसौटी पर खचित स्वर्ण-रेखा की आभा लिए हुए कमल के समान जो गौर वर्ण थे, जो उग्र तपस्वी थे, दीप्त तपस्वीकर्मों को भस्मसात् करने में अग्नि के समान प्रदीप्त तप करने वाले थे, तप्ततपस्वी—जिनकी देह पर तपश्चर्या की तीव्र झलक व्याप्त थी, जो कठोर एवं विपुल तप करने वाले थे, जो उराल-प्रबलसाधना में सशक्त, घोरगुण–परम उत्तम-जिनको धारण करने में अद्भुत शक्ति चाहिए-ऐसे गुणों के धारक, घोर तपस्वी-प्रबल तपस्वी, घोर ब्रह्मचर्यवासी--कठोर ब्रह्मचर्य के पालक, उत्क्षिप्तशरीरदैहिक सार-संभाल या सजावट से रहित थे, जो विशाल तेजोलेश्या अपने शरीर के भीतर समेटे हुए थे, बेले-बेले निरन्तर तप का अनुष्ठान करते हुए, संयमाराधना तथा तन्मूलक अन्यान्य तपश्चरणों द्वारा अपनी आत्मा को भावित–संस्कारित करते हुए विहार करते थे। 77. तए णं से भगवं गोयमे छट्ठक्खण-पारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बिइयाए पोरिसीए शाणं झियाइ, तइयाए पोरिसीए अतुरियं अचवलं असंभंते मुहपत्ति पडिलेहेइ, पडिलेहिता भायण-वत्थाई पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता भायणवत्थाई पमज्जइ, पज्जित्ता भायणाई उग्गाहेइ, उग्गाहित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामि णं भंते ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए छठक्खमणपारणगंसि वाणियगामे नयरे उच्च-नीय-मज्झिमाइं कुलाई घर-समुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया ! (मा पडिबंधं करेह।) बेले के पारणे का दिन था, भगवान् गौतम ने पहले पहर में स्वाध्याय किया, दूसरे पहर में ध्यान किया, तीसरे पहर में अत्वरित-जल्दबाजी न करते हुए, अचपल--- स्थिरतापूर्वक, असंभ्रान्त-अनाकुल भाव से-जागरूकतापूर्वक मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन किया, पात्रों और वस्त्रों का प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन किया। पात्र उठाये, वैसा कर, जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहां आए / उन्हें वंदन, नमस्कार किया / वंदन, नमस्कार कर यों बोले-- भगवन् ! आपसे अनुज्ञा प्राप्त कर मैं आज बेले के पारणे के दिन वाणिज्यग्राम नगर में उच्च (सधन), निम्न (निर्धन), मध्यम-सभी कुलों में गृह-समुदानी-क्रमागत किसी भी घर को बिना छोडे की जाने वाली भिक्षा-चर्या के लिए जाना चाहता हूं। भगवान् बोले-देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो, (बिना प्रतिबन्ध-विलम्ब किए) करो। 78. तए णं भगवं गोयमे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ दूइपलासाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता अतुरियमचवलमसंभंते जुगंतर-परिलोयणाए दिट्ठीए पुरओ ईरियं सोहेमाणे जेणेक वाणियगामे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वाणियगामे नयरे उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाइं घर-समुदाणस्स भिक्खायरियाए अडइ। श्रमण भगवान् महावीर से अभ्यनुज्ञात होकर उनकी आज्ञा प्राप्त कर भगवान् गौतम ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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