SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ " [उपासकदशांगसूत्र मनुष्यों का प्रावास वहीं तक है अर्थात् जम्बूद्वीप, धातकीखंड तथा प्राधा पुष्करद्वीप-इन ढाई द्वीपों में मनुष्य रहते हैं। श्रमणोपासक आनन्द को जो अवधि-ज्ञान उत्पन्न हुआ था, उससे वह जम्बूद्वीप के चारों ओर फैले लवणसमुद्र में पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण-इन तीन दिशाओं में पांच सौ योजन की दूरी तक देखने लग गया था / उत्तर में वह हिमवान् वर्षधर पर्वत तक देखने लग गया था। जम्बूद्वीप में वर्षधर पर्वतों में पहले दो-हिमवान् तथा महाहिमवान् हैं / प्रस्तुत सूत्र में हिमवान् के लिए चुल्लहिमवंत पद का प्रयोग हुआ है / चुल्ल का अर्थ छोटा है। महाहिमवान् की दृष्टि से हिमवान् के साथ यह विशेषण दिया गया है। ऊर्ध्वलोक में आनन्द द्वारा सौधर्म-कल्प तक देखे जाने का संकेत है। [ऊर्ध्व लोक में निम्नांकित देवलोक अवस्थित हैं सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत तथा नौ ग्रैवेयक एवं पांच अनुत्तर विमान—विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध / सौधर्म इन में प्रथम देवलोक है। अधोलोक में निम्नांकित सात नरक भूमियां हैं-रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमः-प्रभा एवं महातमःप्रभा। ये क्रमशः एक दूसरे के नीचे अवस्थित हैं। रत्नप्रभा भूमि में लोलुपाच्युत प्रथम नरक का एक ऊपरी विभाग है, जहाँ चौरासी हजार वर्ष की स्थिति वाले नारक रहते हैं। तत्त्वार्थसूत्र के तीसरे अध्याय में अधोलोक और मध्यलोक का तथा चौथे अध्याय में ऊर्ध्वलोक का वर्णन है / जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में इस सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन है। __ श्रमणोपासक आनन्द के अवधिज्ञान का विस्तार उसके अवधि-ज्ञानावरण-कर्म-पुद्गलों के क्षयोपशम के कारण चारों दिशाओं में उपर्युक्त सीमा तक था। 75. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरिए, परिसा निग्गया जाव' पडिगया। उस काल-वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे आरे के अन्त में, उस समय भगवान् महावीर समवसृत हुए-पधारे / परिषद् जुड़ी, धर्म सुनकर वापिस लौट गई। __76. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेठे अंतेवासी इंदभूई नाम अणगारे गोयम-गोत्तेणं, सत्तुस्सेहे, समचउरंससंठाणसंठिए, वज्जरिसहनारायसंघयणे, कणगपुलगनिघसपम्हगोरे, उग्गतवे, दित्ततवे, तत्ततवे घोरतवे, महातवे, उराले, घोरगुणे, घोरतवस्सी, घोरबंभचेरवासी, उच्छूढसरीरे, संखित्त-विउल-तेउ-लेस्से, छळं-छोणं अणिक्खित्तेणं तवो-कम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। उस काल, उस समय श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति नामक अनगार, जिनकी देह की ऊंचाई सात हाथ थी, जो समचतुरस्त्र-संस्थान-संस्थित थे-देह के चारों 1. देखें सूत्र संख्या 11 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy