________________ सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र] [157 पिता सिद्धार्थ लिच्छिवि और नाय संघ से सम्बद्ध थे। लिच्छिवि संघ-राज्य के प्रधान चेटक थे, जिनकी बहिन त्रिशला का विवाह सिद्धार्थ से हुआ था / अर्थात् चेटक भगवान् महावीर के मामा थे / कल्पसूत्र में एक ऐसे संघीय समुदाय का उल्लेख है, जिसमें नौ मल्लकि, नौ लिच्छिवि तथा काशी, कोसल के 18 गणराज्य सम्मिलित थे / यह संगठन चेटक के नेतृत्व में हुआ था। इसका मुख्य उद्देश्य कुणिक अजातशत्रु के आक्रमण का सामना करना था। इन संघराज्यों की संसदों, व्यवस्था, प्रशासन इत्यादि का जो वर्णन हम पाली, प्राकृत ग्रन्थों में पढ़ते हैं, उससे प्रकट होता है कि हमारे देश में जनतन्त्रात्मक प्रणाली के सन्दर्भ में सहस्रों वर्ष पूर्व बड़ी गहराई से चिन्तन हुआ था। संघ की एक सभा होती थी, वह शासन और न्याय दोनों का काम करती थी। संघ का प्रधान, जो अध्यक्षता करता था, मुख्य राजा कहलाता था। संघ की एक राजधानी होती थी, जहां सभाओं का आयोजन होता था / लिच्छिवियों की राजधानी वैशाली थी। उस समय हमारा देश धन, धान्य और समृद्धि में चरम उत्कर्ष पर था। भगवान् महावीर और बुद्ध के समय वैशाली बड़ी समृद्ध और उन्नत नगरी थी। एक तिब्बती उल्लेख के अनुसार वैशाली तीन भागों में विभक्त थी, जिनमें क्रमशः सात हजार, चौदह हजार तथा इक्कीस हजार घर थे। वैशाली उस समय की महानगरी थी, इसलिए ये तीन विभाग संभवतः वैशाली, कडपर और णज्यग्राम हो / भगवान् महावीर का एक विशेष नाम बेसालिय (वैशाली से सम्बद्ध) भी है / भगवान् महावीर लिच्छिवि संघ के अन्तर्गत नाय (ज्ञात) संघ से सम्बद्ध थे। 211. तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुवइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालस-विहं सावग-धम्म पडिवज्जइ, पडिवज्जित्ता समणं भगवं महावीरं बंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता तमेव धम्मियं जाण-प्पवरं दुरुहइ, दुरुहित्ता जामेव दिसि पाउन्भूया, तामेव दिसि पडिगया। तब अग्निमित्रा ने श्रमण भगवान् महावीर के पास पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का श्रावकधर्म स्वीकार किया, श्रमण भगवान् महावीर को बंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर उसी उत्तम धार्मिक रथ पर सवार हुई तथा जिस दिशा से आई थी उसी की ओर लौट गई। भगवान का प्रस्थान 212. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ पोलासपुराओ नयराओ सहस्संबवणाओ उज्जाणाओ पडिनिग्गच्छइ, पडिनिग्गच्छित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर पोलासपुर नगर से, सहस्राम्रवन उद्यान से प्रस्थान कर एक दिन अन्य जनपदों में विहार कर गए। 213, तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव' विहरइ / तत्पश्चात् सकडालपुत्र जीव-अजीव आदि तत्वों का ज्ञाता श्रमणोपासक हो गया / धार्मिक जीवन जीने लगा। गोशालक का आगमन 214. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते इमीसे कहाए लद्धढे समाणे एवं खलु सद्दालपुत्ते आजीविय-समयं वमित्ता समणाणं निग्गंथाणं दिट्टि पडिवन्ने / तं गच्छामि णं सद्दालपुत्तं आजीविओ१. देखें सूत्र-संख्या 64 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org