________________ 158] [उपासकदशांगसूत्र वासयं समणाणं निग्गंथाणं दिद्धि वामेत्ता पुणरवि आजीविय-दिदि गेण्हावित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता आजीविय-संघसंपरिवुडे जेणेव पोलासपुरे नयरे, जेणेव आजीवियसभा, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आजीवियसभाए भंडग-निक्खेवं करेइ, करेत्ता कइवएहि आजीविएहि सद्धि जेणेक सद्दालपुत्ते समणोवासए तेणेव उवागच्छइ। कुछ समय बाद मंखलिपुत्र गोशालक ने यह सुना कि सकडालपुत्र आजीविक-सिद्धान्त को छोड़ कर श्रमण-निर्ग्रन्थों की दृष्टि--दर्शन या मान्यता स्वीकार कर चुका है, तब उसने विचार किया कि मैं आजीविकोपासक सकडालपुत्र के पास जाऊँ और श्रमण निर्ग्रन्थों की मान्यता छुड़ाकर उसे फिर आजीविक-सिद्धान्त ग्रहण करवाऊं / यों विचार कर वह आजीविक संघ के साथ पोलासपुर नगर में आया, आजीविक-सभा में पहुंचा, वहां अपने पात्र, उपकरण रखे तथा कतिपय आजीविकों के साथ जहां सकडालपुत्र था, वहां गया / सकडालपुत्र द्वारा उपेक्षा 215. तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मंखलि-पुत्तं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता नो आढाइ, नो परिजाणाइ, अणाढायमाणे अपरिजाणमाणे तुसिणीए संचिट्टइ। श्रमणोपासक सकडालपुत्र ने मंखलिपुत्र गोशालक को आते हुए देखा / देखकर न उसे आदर दिया और न परिचित जैसा व्यवहार ही किया। आदर न करता हुआ, परिचित का सा व्यवहार न करता हुमा, अर्थात् उपेक्षाभावपूर्वक वह चुपचाप बैठा रहा। गोशालक द्वारा भगवान् का गुण-कीर्तन 216. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सद्दालपुत्तेणं समणोवासएणं अणाढाइज्जमाणे अपरिजाणिज्जमाणे पीढ-फलग-सिज्जा-संथारटुयाए समणस्स भगवओ महावीरस्स गुणकित्तणं करमाणे सहालपत्तं समणोबासयं एवं बयासी—आगएणं, देवाणप्पिया! इहं महामाहणे? श्रमणोपासक सकडालपुत्र से प्रादर न प्राप्त कर, उसका उपेक्षा भाव देख मंखलिपुत्र गोशालक पीठ, फलक, शय्या तथा संस्तारक आदि प्राप्त करने हेतु श्रमण भगवान् महावीर का गुण-कीर्तन करता हुआ श्रमणोपासक सकडालपुत्र से बोला--देवानुप्रिय ! क्या यहां महामाहन आए थे? 217. तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मखलिपुत्तं एवं क्यासी-के णं, देवाणुप्पिया ! महामाहणे ? __ श्रमणोपासक सकडालपुत्र ने मंखलिपुत्र गोशालक से कहा--देवानुप्रिय ! कौन महामाहन ? (आपका किससे अभिप्राय है ?) 218. तए णं से गोसाले मखलिपुत्ते सद्दालपुत्तं समणोवासयं एवं वयासी-समणे भगवं महावीरे महामाहणे। से केणठेणं, देवाणुप्पिया! एवं पुच्चइ समणे भगवं महावीरे महामाहणे ? एवं खलु, सद्दालपुत्ता ! समणे भगवं महावीरे महामाहणे उप्पन्न-णाण-दसणधरे जाव' महियपूइए जाव' तच्च-कम्म-संपया-संपउत्ते / से तेणठेणं देवाणुप्पिया ! एवं वुच्चइ समणे भगवं महावीरे महामाहणे। आगए णं देवाणुप्पिया ! इहं महागोवे ? 1. देखें सूत्र-संख्या 188 2. देखें सूत्र-संख्या 188 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org